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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध ___ पदार्थ-वितिमिस्से हिं-गृहस्थ और अन्य दर्शनियों से मिश्रित । सयणेहिं जो बस्तियां हैं। तत्थ-वहां पर। इथिओ-स्त्रियों से प्रार्थित किए गए। से-वे श्रमण भगवान महावीर। परिन्नाय-मैथुन क्रीड़ा के परिणाम को जानकर। सागारियं-मैथुन कीड़ा का। न सेवेइ-सेवन नहीं करते थे। य-पुनः । से-वे। सयं-स्वयं-अपनी आत्मा से वैराग्य मार्ग में। पवेसिया-प्रविष्ट होकर। झाइ-धर्म वा शुक्ल ध्यान में निमग्न रहते थे।
मूलार्थ-यदि गृहस्थों एवं जैनेतर सन्तों से मिश्रित बस्तियों में ठहरे हुए भगवान को वहां स्थित देखकर स्त्रियां विषय-भोग के लिए प्रार्थना करतीं तो वे मैथुन के परिणाम को जानकर उसका सेवन नहीं करते थे। वे स्वयं अपनी आत्मा से वैराग्य मार्ग में प्रवेश करके सदा धर्म एवं शुक्ल ध्यान में ही संलग्न रहते थे।
हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि भगवान महावीर सदा-सर्वदा आत्म-चिन्तन में संलग्न रहते थे। वे प्रायः गांव के बाहर या जंगल में ही ठहरते थे। फिर भी इधर-उधर से गुजरते समय उनके रूप-सौंदर्य को देखकर कुछ कामातुर स्त्रियां उनके पास पहुंचकर भोग भोगने की इच्छा प्रकट करती थीं। वे अनेक तरह के हाव-भाव प्रदर्शित करके उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करती थीं, परन्तु भगवान उस ओर ध्यान ही नहीं देते थे। क्योंकि वे विषय-वासना के विषाक्त परिणामों से परिचित थे। वे जानते थे कि ये भोग ऊपर से मधुर प्रतीत होते हैं, परन्तु इनका परिणाम बहुत भयावना होता है। जैसे किंपाक फल देखने में सुन्दर लगता है, उसकी सुवास भी बड़ी सुहावनी होती है, उसका स्वाद भी मधुर होता है और उसका उपयोग करने वाले व्यक्ति को भी वह बड़ा प्रिय लगता है, परन्तु, खाने के बाद जब उसका असर होता है, तो मनुष्य निर्जीव हो जाता है। इस तरह रूप आदि में सुन्दर प्रतीत होने वाला वह फल परिणाम की दृष्टि से भयंकर है, उसी प्रकार काम-भोग बाहर से सुखद प्रतीत होने पर भी परिणाम की दृष्टि से दुःखद ही हैं। वे अनेक रोगों के जन्मदाता हैं, शारीरिक शक्ति का ह्रास करने वाले हैं और आत्मा को संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। इसलिए भगवान ने न तो उनकी ओर आंख उठाकर देखा और न उनकी