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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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परन्तु, बोलने के लिए ध्रुव आज्ञा नहीं है। उसके लिए यह विधान है कि बोलने की आवश्यकता होने पर ही साधु निर्दोष एवं मर्यादित भाषा का प्रयोग करे।
इस निवृत्ति और प्रवृत्ति के लिए समिति और गुप्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। समिति प्रवृत्ति की प्रतीक है और गुप्ति निवृत्ति परक जीवन की संसूचक है। प्रत्येक साधक की साधना समिति एवं गुप्ति से युक्त होती है। भगवान महावीर भी समिति-गुप्ति से युक्त थे। वे जब भी चलते थे, तब ईर्यासमिति के साथ चलते थे। वे अपनी दृष्टि को, अपने योगों को सब ओर से हटाकर मार्ग पर संगृहीत कर लेते थे। इससे रास्ते में आने वाले किसी भी जीव की विराधना नहीं होती थी। वे रास्ते में आने वाले प्रत्येक प्राणी को बचाकर अपना मार्ग तय कर लेते थे। यदि दृष्टि में एकाग्रता न हो तो रास्ते में आने वाले छोटे-मोटे प्राणियों की हिंसा से बच सकना कठिन है। इसलिए यह नियम बना दिया गया कि साधक को अपनी दृष्टि एवं अपने योगों को एकाग्र करके विवेक पूर्वक चलना चाहिए। भगवान महावीर ने इसका स्वयं आचरण करके बताया कि साधक को किस प्रकार चलना चाहिए। भगवान महावीर केवल उपदेष्टा नहीं थे। इसलिए उन्होंने उपदेश देने से पहले स्वयं आचरण करके साधना के मार्ग को बताया।
___ भगवान महावीर को पथ से गुजरते हुए देखकर बहुत-से बालक डरकर कोलाहल मचाते और अन्य बालकों को बुलाकर भगवान पर धूल फेंकते तथा हो-हल्ला मचाते। इससे भगवान का कुछ नहीं बिगड़ता। वे उनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखते। वे समभावपूर्वक अपने पथ पर चलते रहते। इस तरह सब परीषहों को सहते हुए भगवान ईर्या समिति पूर्वक विचरते थे।
पहले महाव्रत-अहिंसा का वर्णन करके अब सूत्रकार चौथे महाव्रत के विषय में कहते हैंमूलम् - सयणेहिं वितिमिस्सेहिं इत्थिओ तत्थ से परिन्नाय।
सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ॥6॥ छाया- शयनेषु व्यतिमिश्रेषु, स्त्रियः तत्र सः परिज्ञाय।
सागारिकं न सेवेत, स स्वयं प्रवेश्य ध्यायति॥