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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अब भगवान के विहार का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अंतसो झायइ।
अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु॥5॥ छाया-अथ पौरुषीं तिर्यग्भित्तिं, चक्षुरासाद्य अन्तःध्यायति।
अथ चक्षुर्भीताः संहिता, यो हत्वा हत्वा बहवः चक्रदुः॥ पदार्थ-अदु-आनन्तर्य अर्थ में है। पोरिसिं-पुरुष परिमाण। तिरियं भित्तिं-ऊर्ध्व शकटवत् अर्थात् पीछे से संक्षेप और आगे से विस्तार वाली धुरी की तरह। चक्खुमासज्ज-दृष्टि को आगे रखकर अर्थात् देखकर। अन्तसो-वे अपने मन को। झायइ-ईर्या-समिति में लगाते हुए चलते हैं। अह-अथ। चक्खुभीया-उस समय उनके दर्शन से डरे हुए। ते-वे। संहिया-बहुत-से बालक मिलकर। हंता हंता-धूल से भरी हुई मुष्टि को मारते हुए। बहवे-बहुत-से बालक। कंदिसु-कोलाहल करते हैं।
मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर, पुरुष प्रमाण आगे के मार्ग को देखते हुए, अर्थात् रथ की धुरी प्रमाण भूमि को देख कर ईर्यासमिति में ध्यान देकर चलते हैं। उनको चलते हुए देख कर उनके दर्शन से डरे हुए बहुत-से बालक इकट्ठे होकर भगवान पर धूल फेंकते हैं और वे अन्य बालकों को बुलाकर कहते हैं कि देखो देखो! मुंडित कौन है? वे इस प्रकार कोलाहल करते हैं। हिन्दी-विवेचन
साधना का जीवन निवृत्ति का जीवन है, परन्तु शरीरयुक्त प्राणी सर्वथा निवृत्त नहीं हो सकता। उसे आवश्यक कार्यों के लिए कुछ-न-कुछ प्रवृत्ति करनी होती है। इसलिए साधना के क्षेत्र में भी निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति का उल्लेख किया गया है। अतः निवृत्ति की तरह साधना में सहायक प्रवृत्ति भी धर्म है। फिर भी दोनों में अंतर इतना ही है कि निवृत्ति उत्सर्ग है और प्रवृत्ति अपवाद है। या यों कहिए कि निवृत्ति के लिए सदा-सर्वदा आज्ञा है, साधक प्रतिसमय निवृत्ति कर सकता है, परन्तु प्रवृत्ति के लिए यह बन्धन है कि आवश्यक या अनिवार्य कार्य होने पर ही उसका उपयोग किया जाए। जैसे मौन रखने के लिए सदा आज्ञा है, उसके लिए कोई बन्धन नहीं है।