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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र भगवान के पास 13 महीने तक रहा। उसके पश्चात् भगवान ने उसका त्याग कर दिया और वे सदा के लिए अचेलक हो गए। सभी तीर्थंकरों की यही मर्यादा है कि वे देवदूष्य वस्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी वस्त्र को स्वीकार नहीं करते। उसका त्याग करने के बाद वे अचेलक ही रहते हैं। भगवान महावीर ने भी उसी परम्परा का अनुसरण किया।
इस गाथा में 'चाइ' और 'बोसिज्ज' दो पद दिए हैं। पहले पद का अर्थ है त्याग। इसका तात्पर्य यह हुआ कि त्याग करने पर ही त्यागी होता है और साधक अपनी साधना का विकास करने के लिए या विशिष्ट साधना के लिए सदा कुछ-न-कुछ त्याग करता ही है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पदार्थ उसकी साधना को दूषित करने वाला है, इसलिए वह उसका त्याग करता है। उसका तात्पर्य इतना ही है कि विशिष्ट साधना के लिए साधक उसका त्याग करता है। जैसे तपश्चर्या की साधना करने वाला साधक आहार-पानी का त्याग कर देता है। इससे यह समझना गलत एवं भ्रान्त होगा कि आहार संयम का बाधक है। अस्तु, वह संयम पालन के लिए आहार , का त्याग नहीं करना, अपितु, तप-साधना के लिए आहार का परित्याग करता है। इसी तरह निःस्पृह भाव से वस्त्र रखते हुए भी शुद्ध संयम का पालन हो सकता है। फिर भी कुछ विशिष्ट साधक विशिष्ट साधना या शीत-ताप एवं दंशमशक आदि परीषहों को सहन करने रूप तप की विशिष्ट साधना के लिए वस्त्र का त्याग करते हैं, जैसा कि भगवान महावीर ने किया था।
भगवान ने वस्त्र का कैसे परित्याग किया, इसका विस्तृत विवेचन कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में किया गया है। यहां वृत्तिकार ने इतना ही बताया है कि एक बार भगवान सुवर्ण बालुका नदी के किनारे चल रहे थे। उस समय उसके प्रवाह में बहकर आए हुए कांटों में फंसकर वह वस्त्र उनके कन्धे पर से गिर गया भगवान ने उसे उठाने का प्रयत्न नहीं किया। वे उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ गए और एक व्यक्ति ने उस वस्त्र को उठा लिया।
1. तच्च सुवर्णवालुकानदी पूराहतकण्टकावलग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति।
-आचाराङ्ग वृत्ति