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________________ 810 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध करते, क्योंकि वे शरीर पर से अपना ध्यान हटा चुके हैं। उनका चिन्तन केवल आत्मा की ओर लगा हुआ है। इसलिए उन्हें यह अनुभूति ही नहीं होती कि उनके शरीर पर क्या-कुछ हो रहा है। इस तरह भगवान महावीर ने साढ़े चार महीने तक जन्तुओं के परीषहों को समभावपूर्वक सहन किया। ___ ध्यान एवं आत्म-चिन्तन में संलग्न प्रत्येक साधक के लिए यह बताया गया है कि उस समय वह शरीर पर से ध्यान हटाकर आत्मभाव में स्थित रहे। ध्यान को कायोत्सर्ग भी कहते हैं। कायोत्सर्ग का अर्थ है-काय (शरीर) का त्याग कर देना। यहां शरीर त्याग का अर्थ-मर जाना नहीं, किन्तु शरीर से अपना ध्यान हटा लेना होता है। उस समय कोई भी जीव-जन्तु उसके शरीर पर डंक भी मारे, तब भी वह साधक अपनी साधना से विचलित न होते हुए और उस प्राणी को न हटाते हुए समभाव पूर्वक अपनी साधना एवं चिन्तन वृत्ति में संलग्न रहे। इस प्रकार की आत्मसाधना से कर्मों का क्षय होता है। भगवान महावीर ने यह साधना केवल ध्यान के समय ही नहीं, अपितु सदा-सर्वदा चालू रखी। वह देवदूष्य वस्त्र भगवान के पास कब तक रहा, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- संवच्छरं साहियं मासं, जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं। अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे॥4॥ छाया- सम्वत्सरं साधिकं मासं यन्न त्यक्तवान वस्त्रं भगवान। अचेलकः ततः त्यागी, तत् व्युत्सृज्य वस्त्रमनगारः॥ पदार्थ-भगवं-भगवान ने। संवच्छरं-एक वर्ष। साहियं मासं-एक मास अधिक अर्थात् 13 महीने तक। जं-जिस। वत्थगं-वस्त्र को। न रिक्कासि-नहीं छोड़ा। तओ-तत्पश्चात् । चाइ-वस्त्र के त्यागी हुए। तं-उसे। वोसिज्ज-छोड़ कर। अणगारे-अनगार-भगवान। अचेलए-अचेलक हुए। मूलार्थ-भगवान 13 महीने तक वस्त्र को धारण किए हुए रहे, तत्पश्चात् वस्त्र को छोड़कर वे अचेलक हो गए।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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