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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
मूलम् - चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया अभिगम्म । अभिरुज्झ कायं विहिरिंसु, आरुसिया णं तत्थ हिंसिसु ॥ 3 ॥
छाया - चतुरः समधिकान् मासान्, बहवः प्राणिजातयः समागत्य । आरुह्य कायं विजहुः, आरुह्य तत्र हिंसन्तिस्म ॥
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पदार्थ - चत्तारि मासे - चार महीनों से । साहिए - अधिक । बहवे पाणजाइयाअनेक जातियों के प्राणी । आभिगम्म - आ कर के । अभिरुज्झ कायं - शरीर पर बैठ कर । विहिरिंसु - रहने लगे तथा । आरुसिया -मांस एवं रुधिर का आस्वादन करने के लिए शरीर पर चढ़ कर । तत्थ - वहां उस शरीर की। हिंसिसु-हिंसा करने लगे, मांस-खून आदि चखने लगे, भगवान के शरीर पर डंक मारने लगे ।
मूलार्थ-भगवान महावीर के शरीर एवं देवदूष्य वस्त्र से निकलने वाली सुवास आकर्षित होकर बहुत-सी जातियों के प्राणी उनके शरीर पर बैठने एवं रहने लगे और करीबन साढ़े चार महीने तक उनके शरीर पर डंक मारते रहे ।
हिन्दी - विवेचन
दीक्षा के पूर्व भगवान को सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित जल से स्नान कराया गया था और उनके शरीर पर चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ लगाए थे । उन पदार्थों एवं देव- वस्त्र से निकलने वाली सुवास से आकर्षित होकर भ्रमर, मधु मक्खी आदि अनेक प्राणी उनके शरीर पर बैठने लगे और सुवास का आनन्द लेने के साथ-साथ भगवान के शरीर पर डंक भी मारने लगे। कुछ प्राणियों ने तो भगवान के शरीर को ही आवास-स्थान बना लिया। इतना कष्ट होने पर भी भगवान उन्हें हटाते नहीं थे । वे शारीरिक चिन्तन से ऊपर उठकर केवल आत्मचिन्तन में संलग्न रहते थे ।
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भगवान महावीर की साधना प्रत्येकबुद्ध साधक की विशिष्ट साधना है। सामान्य साधक अपने शरीर पर बैठने वाले मच्छर आदि जन्तुओं को यतना पूर्वक हटा भी देता है। वह इतना ध्यान अवश्य रखता है कि अपने शरीर का बचाव करते हुए दूसरे के शरीर का नाश न हो। इसलिए साधक प्रमार्जनी के द्वारा धीरे से उस प्राणी को बिना आघात पहुंचाए अपने शरीर से दूर कर देता है । परन्तु, विशिष्ट साधक उन्हें हटाने का प्रयत्न नहीं करते। वे अपने मन में उनको दूर करने की कल्पना तक नहीं