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________________ 806 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कध इससे स्पष्ट होता है कि साधक को अपने स्नेही सम्बन्धियों के साथ अधिक समय तक नहीं रहना चाहिए। इससे अनुराग एवं मोह की जागृति होती है और मोह साधक के जीवन को पतन की ओर ले जाने वाला है। अतः भगवान ने केवल उपदेश देकर ही नहीं, किन्तु स्वयं उनका आचरण करके बताया कि साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट साधक को किस तरह रहना चाहिए। भगवान महावीर ने इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र का उपयोग किया और उसे क्यों स्वीकार किया, इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमन्ते। ... से पारए आवकहाए, एवं खु अणुधम्मियं तस्स॥2॥ छाया- नो चैवानेन वस्त्रेण, पिधाम्यामि तस्मिन हेमन्ते। स पारगः यवित्कथं, एतत् खलु अनुधार्मिकं तस्य। पदार्थ-च-पुनः। एव-अवधारण अर्थ में। इमेण वत्थेण-मैं इस वस्त्र से। तसि हेमन्ते-उस हेमन्त काल में। नो पिहिस्सामि-अपने शरीर को नहीं ढङ्केगा। से-वह भगवान। पारए-प्रतिज्ञा के परिपालक और संसार के पारगामी थे। आवकहाए-जीवन पर्यन्त इसी वृत्ति को धारण करने वाले थे। खु-अवधारणार्थ में हैं। एवं-यह वस्त्र रूप धर्म। अणुधम्मियं-अन्य तीर्थंकरों ने ग्रहण किया है-इस कारण से। तस्स-उसी धर्म को भगवान ने ग्रहण किया है। , मूलार्थ-मैं इस वस्त्र से हेमन्त काल में शरीर को ढक लूंगा, इस आशय से भगवान ने वस्त्र ग्रहण नहीं किया। भगवान तो जीवनपर्यन्त प्रतिज्ञा के पालक, परीषह और संसार के पारगामी हैं-किन्तु पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने इसे ग्रहण किया है, इसलिए भगवान ने भी स्वीकार किया, अर्थात् पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित होने से उस इन्द्र प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र को भगवान ने ग्रहण किया। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि दीक्षा लेते समय स्वीकार किए गए देवदूष्य वस्त्र के सम्बन्ध में भगवान ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं इस वस्त्र का अपने शरीर को ढकने के लिए उपयोग नहीं करूंगा और भगवान ने जीवनपर्यन्त इस प्रतिज्ञा का
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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