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नवम अध्ययन, उद्देशक 1
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'तरह अनादि-अनन्त श्रुत में भी ऐतिहासिक महापुरुषों का उल्लेख होता है। इसमें सब आचार्यों की एक मान्यता है। जैन विचारकों में इस मान्यता के संबन्ध में दो विचार नहीं पाए जाते। अस्तु, इस तरह आचाराङ्ग में भगवान के जीवन का वर्णन उसकी अनन्तता को भी बनाए रखता है।
उपधान शब्द की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने दो तरह का उपधान माना है-1-द्रव्य उपधान और 2-भाव उपधान। द्रव्य उपधान तकिया है, जिससे शयन के समय आराम मिलता है। परन्तु भाव उपधान तपस्या है। तपस्या के द्वारा जीव को अनन्त शान्ति, अनन्त सुख एवं आनन्द की अनुभूति होती है, इसलिए यह भाव उपधान है। तपस्या से कर्म मैल का नाश होता है और आत्मा उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं महोज्ज्वल बनती है और एक दिन सर्व कर्म मल से मुक्त होकर अपने आत्म-स्वरूप में रमण करने लगती है। अतः उपधान से आत्मा का.उपधूनन-कर्म गांठ का भेदन होता है। कर्म गांठ का नष्ट होना ही वास्तव में यथार्थ सुख को प्राप्त करना है। अतः इस अध्ययन में भगवान महावीर के तप एवं साधनानिष्ठ जीवन का वर्णन किया गया है। उनकी साधना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अहासुयं वइस्सामि जहा से समणे भगवं उठाए।
संखाए तंसि हेमन्ते अहुणो पव्वइए रीइत्था॥1॥ छाया- यथा श्रुतं वदिष्यामि, यथा सः श्रमणः भगवान् उत्थाय।
. संख्याय तस्मिन् हेमन्ते, अधुना प्रव्रजितः रीयते स्म। ___ पदार्थ-अहासुयं-यथाश्रुत, अर्थात् आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि जैसे मैंने सुना है। वइस्सामि-मैं वैसे ही कहूंगा। जहा-जैसे। से-वह। समणे भगवं-श्रमण भगवान। उट्ठाए-सम्यक् चारित्र को ग्रहण करके, कर्मों को क्षय करके, और तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए उद्यत होकर, और। संखाए-तत्त्व को जानकर। तसि-उस। हेमंते-हेमन्त काल में। अहुणो-तत्त्व में। पव्वइए-प्रवर्जित . होकर। रीइत्था-विहार किया।
मूलार्थ-आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू! मैंने जैसे श्रमण भगवान महावीर की विहारचर्या का श्रवण किया है, वैसे ही मैं तुम्हारे प्रति