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नवम अध्ययन : उपधान श्रुत
प्रथम उद्देशक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम उपधान श्रुत है। इसमें भगवान महावीर के उपधानतपनिष्ठ जीवन का वर्णन किया गया है। आचारांग सूत्र में साधु के आचार का वर्णन है और भगवान महावीर एक आदर्श साधु थे। अतः उनका यह आचार-विषयक उपदेश अनुभवजन्य है। जिन परीषहों-कष्टों को सहने की तथा जिस साधना का परिपालन करने की बात आचाराङ्ग के आठ अध्ययनों में कही गई है, वैसे परीषह भगवान महावीर ने स्वयं सहन किए थे और उस साधना-पथ पर वे स्वयं चले थे। अतः जब ऐसा विश्वास साधक के मन में हो जाता है कि यह साधना-पथ केवल भगवान का उपदेश मात्र नहीं, प्रत्युत उनके द्वारा आचरित भी है, तो उसकी साधना में तेजस्विता आ जाती है, उसके जीवन में परीषहों को सहने की क्षमता बढ़ जाती है। इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ..
यह हम पहले बता चुके हैं कि द्वादशांगी श्रुत अनादि-अनन्त भी है। इस पर यहां यह प्रश्न उठता है कि अनादि-अनन्त श्रुत में ऐतिहासिक घटना आ सकती है या नहीं। यह प्रश्न वेद को ईश्वर-कृत मानने वाली वैदिक परम्परा के सामने भी था। उनमें दो पक्ष मिलते हैं-कुछ वेदों में ऐतिहासिक घटना मानते हैं और कुछ बेदों में ऐतिहासिक घटना का अभाव मानते हैं। परन्तु, जैन विचारकों ने इसका समाधान स्याद्वाद की भाषा में दिया। उन्होंने कहा कि त्रैकालिक सत्य की अपेक्षा से द्वादशांगी अनादि-अनन्त है। क्योंकि त्रैकालिक सत्य सदा एक-सा रहता है। प्रत्येक काल-चक्र में होने वाले प्रत्येक तीर्थंकर भगवान अहिंसा, सत्य आदि धर्मों का उपदेश स्याद्वाद या अनेकान्त की भाषा में देते हैं। उनके विचारों में सैद्धांतिक एकरूपता रहती है, इस दृष्टि से उनके द्वारा प्ररूपित द्वादशांगी अनादि-अनन्त है। परन्तु प्रत्येक युग में होने वाले तीर्थंकर उसका उपदेश देते हैं। अतः उपदेष्टा की अपेक्षा से वह सादि-सान्त भी है और वे उपदेष्टा अपने पूर्व में हुए महापुरुषों के तथा अपने युग में होने वाले महापुरुषों के जीवन का उदाहरण देकर त्रैकालिक सत्य को परिपुष्ट करते हैं। इस .