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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8 801 • मूलार्थ-मुनि शब्दादि विषयों में अनासक्त रहे। वह जीवनपर्यन्त उन विषयों से निवृत्त रहे और तितिक्षा को सर्व-श्रेष्ठ जानकर मोह से रहित बने। तीनों अनशनों में यथाशक्ति किसी एक अनशन को हितकारी समझकर स्वीकार करे। ऐसा मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन यह तो स्पष्ट है कि जन्म ग्रहण करने वाला प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है। मरना सभी को पड़ता है। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जन्मा है और न जन्मेगा ही जो न मरा हो और न कभी मरेगा। मरते सब हैं, परन्तु मरने-मरने में अन्तर है। एक मृत्यु जन्म-मरण के प्रवाह को बढ़ाती है, तो दूसरी मृत्यु उक्त प्रवाह को समाप्त कर देती है। पहली मृत्यु को आगमिक भाषा में बाल-अज्ञान मरण और दूसरी को पंडित-सज्ञान मरण कहते हैं। पंडितमरण जन्म-मरण को समाप्त करने वाला है और साधना का उद्देश्य भी जन्म-मरण के प्रवाह को समाप्त करना है। अतः साधक को अपनी साधना को सफल बनाने के लिए पंडितमरण को प्राप्त करना चाहिए। यह हम देख चुके हैं कि पंडितमरण तीन प्रकार का है-1-भक्त प्रत्याख्यान, 2-इंगितमरण और 3-पादोपगमन । पादोपगमन सर्वश्रेष्ठ है और इङ्गित मरण मध्यम स्थिति का है और भक्त प्रत्याख्यान सामान्य कोटि का है। ये श्रेणियां साधना की कठोरता की अपेक्षा से हैं। साधना की दृष्टि से तीनों मरण महत्त्वपूर्ण हैं। यदि साधक राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करते हुए समाधि-मरण को प्राप्त करता है, तो वह प्रत्येक मरण से निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है। यह उसकी शारीरिक क्षमता पर आधारित है कि वह तीनों में से किसी भी एक मरण को स्वीकार करे। परन्तु, समभाव से उसका पालन करे, अन्तिम सांस तक अपने पथ से भ्रष्ट न हो, इसी में उसकी साधना की सफलता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। ॥ अष्टम उद्देशक समाप्त ॥ ॥ अष्टम अध्ययन समाप्त ॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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