SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 889
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 800 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध से क्षय न होने वाले वैभव का भी निमंत्रण करे, तब वह साधु उसे ग्रहण करने की इच्छा न करे। इसी तरह देव सम्बन्धी माया की भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। अतः हे शिष्य! तू माया के स्वरूप को समझ और इसे सर्व प्रकार से कर्मबन्ध का कारण जान कर इससे दूर रह, अर्थात् इसमें रागभाव मत रख। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत गाथा में बताया है कि यदि साधक को कोई इतना धन-वैभव दे कि वह जीवनपर्यन्त समाप्त न हो, तब भी उसे उस वैभव की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। मनुष्य के वैभव की तो बात ही क्या है, उसे स्वर्ग के वैभव को पाने की भी अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि, वह नाशवान है और आरम्भ-समारम्भ एवं वासना को बढ़ाता है, जिससे पापकर्म का बन्ध होता है और परिणामस्वरूप जन्म-मरण के प्रवाह में बहना पड़ता है। इसलिए साधक को भोगों की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। ___ कभी-कभी मिथ्यात्वी देव उसे पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। विभिन्न प्रलोभनों एवं कष्टों के द्वारा उसके ध्यान को भंग करने का प्रयास करते हैं। उस समय साधक को समस्त अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों को सहन करना चाहिए, , परन्तु अपने ध्येय से गिरना नहीं चाहिए। उसे देवमाया को भली-भांति समझकर अपने मन को सदा आत्म-चिन्तन में लगाए रखना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- सव्वठेहिं अमुच्छिए, आउकालस्सं पारए। तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नयरं हियं॥25॥ त्तिबेमि छाया- सर्वार्थः अमूर्छितः आयुः कालस्य पारगः। तितिक्षा परमं ज्ञात्वा विमोहान्यतरं हितम्॥ पदार्थ-सव्वद्वेहिं-वह मुनि समस्त शब्दादि विषयों में। अमुच्छिए-आसक्त न बने। आउकालस्स-वह जीवन पर्यन्त उन विषयों से निवृत्त होने में। पारए-पारंगत बने और। तितिक्खं-तितिक्षा को। परमं नच्चा-सर्वश्रेष्ठ जान कर। विमोहन्नयरं हियं-मोह रहित होकर यथाशक्ति तीनों में से किसी एक अनशन को हितकारी जानकर स्वीकार करे। त्तिबेमि-मैं इस प्रकार कहता हूं।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy