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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
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हिन्दी-विवेचन
समस्त कर्मों से मुक्त होना ही साधना का उद्देश्य है। अतः साधक के लिए समस्त भोगों का त्याग करना अनिवार्य है। इसी बात को बताते हुए कहा गया है कि यदि कोई राजा-महाराजा आदि विशिष्ट धन एवं भोग सम्पन्न व्यक्ति उक्त साधक को देखकर कहे कि तुम इतना कष्ट क्यों उठाते हो, मेरे महलों में चलो मैं तुम्हें सभी भोग-साधन दूंगा, तुम्हारे जीवन को सुखमय बना दूंगा। इस तरह के वचनों को सुनकर साधक विषयों की ओर आसक्त न होवे। वह सोचे कि जब भोगों को भोगने चाला शरीर ही नाशवान है, तब भोग मुझे क्या सुख देंगे? वस्तुतः ये काम-भोग अनन्त दुःखों को उत्पन्न करने वाले हैं, संसार को बढ़ाने वाले हैं। इस तरह सोचकर वह भोगों की आकांक्षा भी न करे और न यह निदान ही करे कि मैं आगामी भव में राजा-महाराजा जैसे भोग-साधनों से संपन्न बनूं। इन सभी सावध आकांक्षाओं से रहित होकर वह अपने आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे। वह किसी भी तरह के वैषयिक चिन्तन की ओर ध्यान न दे।
उसे भोगों की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए; इस विषय का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- सासएहिं निमन्तिज्जा, दिव्वमायं न सद्दहे।
तं परिबुज्झमाहणे, सव्वं नूमं विहूणिया॥24॥ .... छाया- शाश्वतैः निमंत्रयेत् दियमाया न श्रद्धधीत।
..... तत् प्रतिबुध्यस्व माहनः, सर्वं नूमं विधूय।
पदार्थ-सासएहिं-यदि कोई व्यक्ति आयु-पर्यन्त रहने वाले धनादि पदार्थों से। निमंतिज्जा-निमन्त्रित करे, तब भी वह मुनि उसकी इच्छा न करे। दिव्वमायं-इसी प्रकार देवता सम्बन्धी माया पर भी। न सद्दहे-श्रद्धा-विश्वास न करे। तं परिबुज्झ-हे शिष्य! तू उस माया-जाल को समझ। माहणे-साधु। सव्वं-इन सबको। नूमं-कर्म-बन्धन का कारण विहूणिया-जानकर त्याग देता है, अतः हे शिष्य! तुम देवादि के मायाजाल में मत फंसना।
मूलार्थ-यदि कोई व्यक्ति आयु पर्यन्त रहने वाले अथवा प्रतिदिन दान करने