________________
796
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध छाया- अयं सः उत्तमो धर्मः, पूर्वस्थानस्य प्रग्रहः।
अचिरं प्रत्युपेक्ष्य, विहरेत् तिष्ठेत् माहनः॥ पदार्थ-अयं-यह। से-पादोपगमन अनशन। उत्तमे धम्मे-श्रेष्ठ धर्म है। पुव्वट्ठाणस्स-पूर्व दो अनशनों से। पग्गहे-यह प्रकृष्टतर है अतः। अचिरं-स्थंडिल भूमि को। पडिलेहित्ता-देखकर। माहणे-साधु। चिठे-वहां ठहरे और। विहरेविधिपूर्वक उसका परिपालन करे।
मूलार्थ-यह पादोपगमन अनशन उत्तम धर्म है और पूर्व कथित दोनों अनशनों से श्रेष्ठतर है। इस अनशन को स्वीकार करने वाले मुनि को मल-मूत्र त्याग करने. की भूमि को देखकर वहां स्थित होना चाहिए और विधि पूर्वक अनशन का परिपालन करना चाहिए। हिन्दी-विवेचन
पादोपगमन अनशन की विशेषता उसकी कठोर साधना के कारण है। इस अनशन में साधक वृक्ष से टूटकर जमीन पर पड़ी हुई शाखा की तरह निश्चेष्ट होकर आत्मचिन्तन में संलग्न रहता है। वह केवल मलमूत्र का त्याग करने के अतिरिक्त अपने अंगोपांगों का संचालन भी नहीं कर सकता है।
उक्त साधक की वृत्ति का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं।
वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा॥21॥ छाया- अचितं तु समासाद्य, स्थापयेत्तत्रात्मानम् ।
व्युत्सृजेत् सर्वशः कायं, न मे देहे परीषहाः॥ पदार्थ-तु-वितर्क के अर्थ में है। अचित्तं-निर्जीव स्थंडिल एवं तख्तादि को। समासज्ज-प्राप्त करके। तत्थ-वहां पर। अप्पगं-अपनी आत्मा को। ठावए-स्थापन करे और। सव्वसो-सब तरह से अपने। कायं-शरीर का। वोसिरे-व्युत्सर्जन कर दे। परीसहा-परीषहों के उत्पन्न होने पर वह यह भावना करे कि। न मे देहे-यह शरीर मेरा नहीं है। परीसहा-अतः मुझे परीषह कैसे?