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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
मूलार्थ - अचित स्थंडिल एवं तख्त आदि को प्राप्त करके वह अपनी आत्मा को वहां स्थापित करे। वह अपने शरीर का पूर्णतः व्युत्सर्ग करके यह सोचे कि जब यह शरीर मेरा नहीं तो फिर इसे परीषह कैसे और किसको ? इस भावना से वह उत्पन्न होने वाले परीषहों को सहन करे ।
हिन्दी - विवेचन
पादोपगमन अनशन को स्वीकार करने वाले साधक को निर्दोष तृणशय्या एवं तख्त आदि, अर्थात् जीव-जन्तु आदि से रहित शय्या आदि का, एवं हरियाली, बीज, अंकुर एवं जीव-जन्तु से रहित स्थंडिल भूमि का उपयोग करना चाहिए। उसे अपने शरीर की ममता का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। उसे सोचना चाहिए कि मेरी आत्मा इस शरीर से पृथक् है । इसके ऊपर मेरा कोई अधिकार नहीं है। इसे एक दिन अवश्य ही नष्ट होना है, परन्तु यह आत्मा सदा स्थित रहने वाला है । अतः वह शरीर की बिलकुल चिन्ता न करते हुए, आत्मचिन्तन में संलग्न रहे और उस समय उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव से सहन करे ।
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उसे अपने सामने आने वाले परीषहों को कब तक सहन करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - जावज्जीवं परिसहा, उवसग्गा इति संखया । संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए॥22॥
छाया - यावज्जीवं परीषहाः, उपसर्गाः इतिसंख्याय । संवृत्तः देहभेदाय, इति प्राज्ञः अध्यासयेत् ॥
पदार्थ – जावज्जीवं - जीवन पर्यन्त । परिसहा - परीषह और । उवसग्गा - उपसर्ग । इति-इस प्रकार। संखया - जानकर सहन करना चाहिए। देहभेयाए - शरीर भेद के लिए। संबुडे - संवृतात्मा । इय - इस प्रकार । पन्ने - उचित विधान के जानने वाला । अहियासए - सहन करे ।
मूलार्थ - इस तरह देह-भेद अनशन के विधान को जानने वाला संवृत्त आत्मा को जो परीषह एवं उपसर्ग उत्पन्न हों, उन्हें जीवनपर्यन्त - अन्तिम सांस तक समभाव से सहन करे ।