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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
नहीं हैं। यदि उसमें जीव-जन्तु आदि हों तो उसका सहारा न ले और जीव-सहित किसी भी तख्त आदि का उपयोग न करे। क्योंकि, इससे जीवों की विराधना होती है
और फलस्वरूप पापकर्म का बन्ध होता है। पापकर्म वज्रवत् बोझिल होता है। वह आत्मा को सदा नीचे की ओर घसीटता है। इसलिए जिस क्रिया से पापकर्म का बन्ध हो, उस क्रिया से साधक को सदा दूर रहना चाहिए और ऐसी किसी वस्तु का उपयोग नहीं करना चाहिए, जिससे जीवों की हिंसा होती हो।
मुनि को सदा आत्मचिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। उसे अपने को कभी भी दुर्ध्यान में नहीं लगाना चाहिए। दुष्ट चिन्तन एवं बुरे विचार आत्मा को गिराने वाले हैं। अतः मुनि को कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी अपने चिन्तन की धारा को दुष्ट विचारों की ओर नहीं मोड़ना चाहिए। परीषहों के उत्पन्न होने पर भी उसे विचलित नहीं होना चाहिए, अपितु समभाव से सब परीषहों को सहन करना चाहिए और अपने चिन्तन को सदा आत्मविकास में लगाए रखना चाहिए। इस तरह जीवों की रक्षा एवं शुद्ध चिन्तन के द्वारा साधक समाधिमरण को प्राप्त करता है और फलस्वरूप स्वर्ग या मुक्ति को प्राप्त करता है।
इंगितमरण के बाद पादोपगमन अनशन का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अयं चाययतरे सिया, जो एवमणुपालए।
सव्वगाय निरोहेवि, ठाणाओ न विउब्भमे॥19॥ छाया- अयं चायततरः स्यात्, यः एवमनुपालयेत्।
सर्वगात्र विरोधेऽपि, स्थानाद् न व्युद्धमेत् ॥ पदार्थ-अयं-यह पादोपगमन अनशन। च-च शब्द से भक्त परिज्ञा और इंगित मरण से। आययतरे-विशिष्टतर। सिया-है, अतः। जो-जो इसे स्वीकार करने वाला साधक। एवं-इस विधि से। अणुपालए-इसका पालन करे। सव्वगायनिरोहेवि-सारे शरीर का निरोध होने पर भी। ठाणाओ-एक स्थान से दूसरे स्थान पर। न विउब्भमे-संक्रमण न करे, अर्थात् परीषहों के भय से वह स्थान का परिवर्तन न करे।
मूलार्थ-यह पादोपगमन अनशन भक्त परिक्षा और इंगितमरण से विशिष्टतर है, अर्थात विशेष यतना वाला है। अतः साधु उक्त विधि से इसका पालन करे। समस्त