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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
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इस तरह इंगितमरण अनशन की साधना में स्थित साधक योगों का निरोध करने का प्रयत्न करे।
यदि उसके उपयोग में आने वाले तख्त आदि में घुन आदि जीव-जन्तु हों तो उसे उस तख्त को काम में नहीं लेना चाहिए। इससे जीवों की हिंसा होती है। अहिंसा के प्रतिपालक मुनि को जीवों से संयुक्त तख्त ग्रहण न करके जीवों से रहित अन्य तख्त ग्रहण करना चाहिए। इस तरह समस्त जीवों का रक्षण करते हुए साधक को अपने योगों को राग-द्वेष आदि मनोविकारों से रोकते हुए आत्म-चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए।
अनशन करने वाले मुनि की वृत्ति कैसी रहनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं___ मूलम्- जओवज्जं समुप्पज्जे, न तत्थ अवलम्बए।
.. तउ उक्कसे अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए॥18॥ छाया- यत: वज्रं [अवयं] समुत्पद्येत्, न तत्र अवलंबेत् ।
- ततः उत्कर्षेद् आत्मानं, स्पर्शान् तत्र अध्यासयेत्॥ __ पदार्थ-जओ-जिससे। वज्ज-वज्रवत् कर्म । समुप्पज्जे-उत्पन्न हों। तत्थऐसे घुणादि से युक्त काष्ठ फलक का। न अवलम्बए-अवलम्बन न करे। तउ-उसके पश्चात्, वह। अप्पाणं-आत्मा को। उक्कसे-आर्त ध्यान और दुष्ट योग से हटाए। तत्थ-वहां पर ही दुःख रूप स्पर्शों को। अहियासए-सहन करे।
मूलार्थ-जिससे वज्रवत् भारी कर्म उत्पन्न हों, इस प्रकार वे घुणादि से युक्त काष्ठ फलक का अवलम्बन न करे। उसके पश्चात् वह आत्मा को दुष्ट ध्यान और दुष्टयोग से हटाए और वहां उपस्थित हुए दुःख रूप स्पर्शों को समभावपूर्वक सहन करे। हिन्दी-विवेचन ___ प्रस्तुत गाथा में इंगितमरण अनशन का उपसंहार करते हुए बताया गया है कि आवश्यकता पड़ने पर मुनि को घूमना पड़े तो वह मर्यादित भूमि में घूम-फिर सकता है। यदि उसे थकावट मालूम हो तो वह किसी काष्ठ फलक का सहारा लेकर खड़ा होना चाहे तो पहले उसे यह देख लेना चाहिए कि उसमें घुण आदि जीव-जन्तु तो