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________________ 792 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध या पर्यंक आसन करे या सीधा लेट जाए या एक करवट से लेट जाए। जिस किसी आसन से उसे समाधि रहती हो, आत्म-चिन्तन में मन लगता हो; उसी आसन को स्वीकार करके आत्मसाधना में संलग्न रहे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए। कोलावासं समासज्ज वितहं पाउरेसए॥17॥ छाया- आसीनः अनीदृशं मरणं, इन्द्रियाणि समीरयेत्। कोलावासं समासाद्य, वितथं प्रादुरेषयेत्। पदार्थ-मरणं-इंगित मरण के। अणेलिसं-जो अनन्य सदृश अनुपम है मुनि। आसीणे-आश्रित हुआ मुनि। इन्दियाणि-इन्द्रियों को इष्ट और अनिष्ट विषयों से और। समीरए-राग-द्वेष से हटाने की प्रेरणा करे। यदि थकावट होने पर उसे अपनी कमर को सहारा देने के लिए पट्टे की आवश्यकता हो तो वह। कोलावासं-घुन आदि से युक्त। समासज्ज-पट्टे के मिलने पर उससे भिन्न। वितह-जीवादि से रहित पट्टे की। पाउरेसए-गवेषणा करे। मूलार्थ-सामान्य साधक के लिए जिसका आचरण करना कठिन है, ऐसे इंगित मरण में अवस्थित मुनि इन्द्रियों को विषय-विकारों से हटाने की प्रेरणा करे। यदि उसे सहारा लेने के लिए पट्टे की आवश्यकता अनुभव हो तो वह जीव-जन्तु से युक्त पट्टे के मिलने पर उसे ग्रहण न करके, जीवादि से रहित पट्टे की गवेषणा करे। . हिन्दी-विवेचन ___प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि इंगितमरण अनशन व्रत को स्वीकार किए हुए मुनि को राग-द्वेष एवं विकारों से सर्वथा निवृत्त रहना चाहिए। यदि कभी कषायों के उत्पन्न होने तथा मनोविकारों के जागृत होने की सामग्री उपस्थित हो तो मुनि अपने मन एवं इन्द्रियों को उस ओर न जाने दे। वह अपनी साधना के द्वारा उस ओर से मन हटाकर आत्म-चिन्तन में लगा दे। मुनि को उस समय अपने योगों पर इतना काबू पाना चाहिए कि आत्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्यत्र योगों की प्रवृत्ति ही न हो।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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