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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8 भूमि में घूम-फिर सकता है। यदि उसे ग्लानि की अनुभूति न होती हो तो उसे शान्त भाव से आत्मचिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। जहां तक हो सके हलन चलन कम करते हुए या निश्चेष्ट रहते हुए साधना में संलग्न रहना चाहिए और उससे उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। यदि आत्मबल अधिक न हो तो इंगितमरण स्वीकार करने वाले गीतार्थ मुनि को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं - मूलम् - परिक्कमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्ठे अहायए । ठाणेण परिकिलन्ते, निसीइज्जा य अंतसो ॥16॥ 791 छाया - परिक्रामेत् परिक्लान्तः, अथवा तिष्ठेत् यथायतः । स्थानेन परिक्लान्तो निषीदेच्चान्तशः॥ पदार्थ - अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि । परिक्कमे - नियत प्रदेश में चले। परिकिलन्ते अदुवा–अथवा थक जाने पर। चिट्ठे- बैठ जाए। अहायए-सीधा होकर लेट जाए । ठाणेण - यदि खडे होने से । परिकिलन्ते – कष्ट होता हो तो । निसीइज्जा - बैठ जाए। अंतसो - उसे जिस प्रकार समाधि रहे वैसा करे । मूलार्थ-यदि अनशन स्वीकार करने वाले मुनि के शरीर को कष्ट होता हो तो वह नियत भूमि पर घूमे। यदि उसे घूमने से थकावट होती हो तो बैठ जाए और बैठने से भी कष्ट होता हो तो लेट जाए । इसी प्रकार पर्यंक आसन, अर्ध पर्यंक आसन करे और यदि इसके करने से भी कष्ट होता हो तो बैठ जाए। जिस तरह से उसे समाधि रहे, वैसा करे । हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि यदि इंगितमरण अनशन को स्वीकार किए हुए साधक को थकावट प्रतीत होती हो, तो वह मर्यादित भूमि में घूम-फिर सकता है । यदि घूमने से उसे थकावट मालूम हो, तो वह पर्यंक आसन या अर्ध पर्यंक आसन कर ले या बैठ जाए। कहने का तात्पर्य इतना ही हैं कि जिस तरह से उसे समाधि रहती हो, उस तरह उठने-बैठने की व्यवस्था कर सकता है । परन्तु वह अपनी मर्यादा का • उल्लंघन न करे। यह बात अलग है कि मर्यादित भूमि में वह खड़ा रहे या बैठा रहे
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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