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________________ 790 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध हिन्दी-विवेचन इंगितमरण स्वीकार करने वाले मुनि के लिए बताया गया है कि यदि शरीर में ग्लानि उत्पन्न हो तो उसे उस वेदना को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए और अपने चिन्तन को आत्मा की ओर लगाना चाहिए। यदि वह मुनि अपने मर्यादित प्रदेश में हाथ-पैर आदि का संकोच या प्रसार करता है तो भी वह अपने व्रत से नहीं गिरता। क्योंकि, उसने मर्यादित स्थान से बाहर जाकर अंग-संचालन करने का त्याग किया है। अतः मर्यादित भूभाग में अंगों का संचालन करना बन्द नहीं है। इस तरह वह अपनी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए समभावपूर्वक साधना में संलग्न रहे, परन्तु उसे त्यागने का विचार न करे। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अभिक्कमे पडिक्कमे, संकुचए पसारए। काय सहारणट्ठाए, इत्थंवावि अचेयणो॥15॥ छाया-अभिक्रामणं (अभिक्रामेत्) प्रतिक्रमणं (प्रतिक्रामेत्) संकोचयेत्प्रसारयेत् कायसाधारणार्थं अत्रापि अचेतनः॥ पदार्थ-काय सहारणट्ठाए-शरीर की समाधि के लिए। अभिक्कमे-सन्मुख होना। पडिक्कमे-पीछे हटना। संकुचए-अंगादि का संकोच करना या। पसारएविस्तार करना आदि क्रियाएं मर्यादित भूमि में करे। वा-पादोपगमन में मुनि अक्रियवत्-सक्रिय भी निष्क्रिय की तरह रहे। इत्थंवावि अचेयणो-यदि शक्ति हो तो इंगित मरण में भी अचेतनवत्-क्रियारहित होकर स्थित रहे। मूलार्थ-उक्त अनशन को स्वीकार करने वाला मुनि शरीर को समाधि के लिए मर्यादित भूमि में अंगोपांग का संकुचन-प्रसारण करे। यदि उसके शरीर में शक्ति हो तो वह इंगितमरण अनशन में अचेतन पदार्थ की तरह क्रिया एवं चेष्टा रहित होकर स्थित रहे। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत गाथा में भी पूर्व गाथा में उल्लिखित बात को ही पुष्ट किया गया है। इसमें बताया गया है कि यदि शरीर में ग्लानि का अनुभव होता हो तो वह मर्यादित
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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