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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
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कर, आहार से रहित होता हुआ विचरे और यदि वहां पर कोई परीषह उत्पन्न हो तो वह उसे समभाव पूर्वक सहन करे। हिन्दी-विवेचन
अनशन व्रत को स्वीकार करने वाला मुनि किसी भी प्राणी को पीड़ा न दे। सब प्राणियों की रक्षा करना उसका धर्म है। क्योंकि, वह छह काय का रक्षक कहलाता है। इसलिए मुनि को अपनी तृण-शय्या ऐसे स्थान पर बिछानी चाहिए, जहां हरियाली बीज, अंकुर आदि न हों। इसी तरह सचित्त मिट्टी एवं जल काय आदि तथा छोटे-मोटे प्राणियों की भी विराधना नहीं होती हो। मुनि को चाहिए कि वह आहार आदि का त्याग करके सर्वथा निर्दोष भूमि पर तृणशय्या बिछाकर अनशन करे और उस समय उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभावपूर्वक सहता हुआ आत्मचिन्तन में संलग्न रहे।
इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए सूत्रकार कहते हैं.. मूलम्- इंदिएहिं गिलायंतो, समियं आहरे मुणी।
तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए॥14॥ छाया-इन्द्रियैग्लायमानः शामितमाहारयेन्मुनिः।
तथाप्यसौ अग_ः, अचलो यः समाहितः॥ पदार्थ-मुणी-आहारादि का त्याग करने वाला मुनि। इंदिएहिं-इन्दियों से। गिलायंतो-ग्लानि को प्राप्त करता हुआ। समियं-समता भाव को। आहरे-धारण करे, अर्थात् आत्मा में समभाव रखे। यदि अंगों का संकोचन या प्रसारण करना हो तो नियमित भूमि में ही करे। तहावि-तथापि। से-वह मुनि नियमित भूमि में शरीर सम्बन्धी चेष्टा करता हुआ। जे-जो। समाहिए-समाधि में रहा हुआ। अचले–धर्म ध्यान या प्रतिज्ञा पर अटल है। अगरिहे-वह निन्दा का पात्र नहीं हो सकता। __मूलार्थ-आहार न करने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्लानि को प्राप्त हुआ मुनि अपनी आत्मा में समता भाव को धारण करे। जो मुनि अपनी प्रतिज्ञा पर अटल है, यदि वह नियमित भूमि में अङ्गोपांग का प्रसारण करता है, तब भी वह निन्दा का पात्र नहीं बनता।