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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि इंगितमरण भक्त प्रत्याख्यान से भिन्न है और इसकी साधना भी विशिष्ट है। भगवान महावीर ने इसके लिए बताया है कि शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त नियमित भूमि में कोई कार्य न करे और मर्यादित भूमि के बाहर शारीरिक क्रियाएं भी न करे।
प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त 'आयवज्जं पडियारं, विज्जहिज्जा तिहातिहा' इन पदों का वृत्तिकार ने यह अर्थ किया है-आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर कर्मों की अनन्त वर्गणाएं स्थित हैं, उन्हें आत्म प्रदेशों से सर्वथा अलग करना साधक के लिए अनिवार्य है और उन्हें अलग करने का साधन है-ज्ञान और संयम। जैसे साबुन से वस्त्र का मैल दूर करने पर वह स्वच्छ हो जाता है, इसी तरह ज्ञान और संयम की साधना से आत्मा पर आच्छादित कर्म हट जाता है और आत्मा अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेती है। अतः साधक को सदा ज्ञान एवं संयम की साधना में ही संलग्न रहना चाहिए।
इन गुणों की प्राप्ति का मूल अहिंसा की साधना है। अतः उसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- हरिएसु न निवज्जिज्जा, थंडिले मुणियासए।
विओसिज्जा अणाहारो पुट्ठो तत्थ अहियासए॥13॥ छाया- हरितेषु न शयीत स्थंडिल मत्वा शयीत।
व्युत्सृज्य अनाहारः, स्पृष्टः तत्र अध्यासयेत्॥ पदार्थ-हरिएसु-मुनि हरी वनस्पति पर। न निवज्जिज्जा-शयन न करे। थंडिले-वह निर्दोष भूमि। मुणिया-जानकर। सए-उस पर शयन करे। विओसिज्जा-बाह्य और आभ्यन्तर उपधि को छोड़कर। अणाहारो-आहार रहित होता हुआ। तत्थ-उस आसन पर। पुट्ठो-यदि कोई परीषह स्पर्शित हो तो। अहियासए-उसे सहन करे।
मूलार्थ-अनशन करने वाला मुनि हरी घास एवं तृणादि पर शयन न करे। वह शुद्ध निर्दोष भूमि देखकर उस पर शयन करे, वह बाह्याभ्यन्तर उपधि को छोड़