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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
नातिल
तृण शय्या बिछाने के बाद मुनि को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते . हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- अणाहारो तुयट्टिज्जा, पुट्ठो तत्थऽहियासए।
नाइवेलं उवचरे माणुस्सेहिं विपुट्ठवं ॥४॥ छाया- अनाहारः त्वग् वर्तयेत्, स्पृष्टस्तत्र अध्यायेत् ।
नातिवेलं उपचरेत् मानुष्यैः विस्पृष्टवान्॥ पदार्थ-अणाहारो-यथाशक्ति तीन या चार प्रकार के आहार का त्याग करे और यत्नापूर्वक। संस्तारक-संथारे पर। तुयट्टिज्जा-करवट बदले। तत्थ-वहाँ पर। पुट्ठो-परीषहों के स्पर्श होने पर। अहियासए-उस कष्ट को सहन करे और। माणुस्सेहि-मनुष्यों के द्वारा। विपुट्ठवं-स्पर्शित अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों की। नाइवेलं उवचरे-मर्यादा का उल्लंघन न करे। - मूलार्थ-संस्तारक पर बैठा हुआ मुनि तीन या चार प्रकार के आहार का परित्याग करे। वह यत्ना से संस्तारक शय्या पर शयन करे, और वहां पर स्पर्शित होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करे। वह मनुष्यों द्वारा स्पर्शित होने वाले अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों के उपस्थित होने पर मर्यादा का उल्लंघन न करे। वह पुत्र एवं परिजन आदि के सम्बन्ध को याद कर आर्तध्यान भी न करे। हिन्दी-विवेचन
संस्तारक-तृणा शय्या बिछाकर मुनि उस पर बैठकर तीनों आहार-पानी को छोड़कर शेष सब खाद्य पदार्थों का या चारों आहार-पानी सहित सभी खाद्य पदार्थों का त्याग करे। यदि उसे तृण आदि के स्पर्श से कष्ट होता हो या कोई देव, मनुष्य एवं पशु-पक्षी कष्ट देता हो, तो वह उसे समभाव पूर्वक सहन करे, परन्तु, उस परीषह से घबराकर अपने व्रत को भंग न करे, अपने साधना मार्ग का त्याग न करे। अनुकूल एवं प्रतिकूल सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करे। कठिनता के समय पर भी अपने मार्ग पर स्थित रहने में ही साधना की सफलता है। इसलिए साधक को पुत्र, माता आदि परिजनों की ओर से ध्यान हटाकर समभाव पूर्वक अपनी साधना में ही संलग्न रहना चाहिए।