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________________ 782 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध शरीर चल रहा है और उसमें साधना करने की शक्ति है, तब तक उसे अनशन करने की आज्ञा नहीं है। रोग के उत्पन्न होने पर भी उसका उपचार करने की अनुमति दी.. गई है। अनशन उस समय के लिए बताया गया है कि जब रोग असाध्य बन गया है और उसके ठीक होने की कोई. आशा नहीं रही है या उसका शरीर इतना जर्जरित निर्बल हो गया है कि अब भली-भांति स्वाध्याय आदि की साधना नहीं हो रही है। अतः अनशन (संथारे) को आत्महत्या कहना नितान्त असत्य है। मृत्यु का समय निकट आने पर साधक को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- गामे वा अदुवा रण्णे, थंडिलं पडिलेहिया। अप्पपाणं तु विन्नाय, तणाई संथरे मुणी॥7॥ छाया- ग्रामे वा अथवा अरण्ये, स्थण्डिलं प्रत्युत्प्रेक्ष्य। अल्पप्राणं तु विज्ञाय, तृणानि संस्तरेत् मुनिः॥ पदार्थ-गामे वा-ग्राम में। अदुवा-अथवा। रण्णे-जंगल में स्थित संयमशील मुनि। थंडिलं-स्थंडिल भूमि को। पडिलेहिया-प्रतिलेखन करके। तु-वितर्क के अर्थ में है। तणाई-तृणों को। संथरे-बिछाए। मूलार्थ-ग्राम या जंगल में स्थित संयमशील मुनि संस्तारक बिछौने एवं शौचादि के स्थान का प्रतिलेखन करे और जीव-जन्तु से रहित निर्दोष भूमि को देखकर वहां तृण बिछाए। हिन्दी-विवेचन पूर्व के उद्देशक में अनशन करने के स्थान का जो वर्णन किया गया है, उसी को इस गाथा में दोहराया गया है। मृत्यु का समय निकट आने पर साधक जिस स्थान में ठहरा हुआ हो, उस स्थान में या उससे बाहर जंगल में या अन्य स्थान में जहां उसे समाधि रहती है, वहां याचना करके निर्दोष तृण की शय्या बिछाकर उस पर अनशन व्रत स्वीकार करे। इसके साथ पेशाब आदि का त्याग करने की भूमि का भी प्रतिलेखन कर ले। इस तरह निर्दोष भूमि पर निर्दोष तृण की शय्या बिछाकर जन्म और मरण. की आकांक्षा रहित होकर अनशन व्रत को स्वीकार करे।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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