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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 8
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सकता है। इसलिए साधक को सदा अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शुद्ध हृदय वाला व्यक्ति ही संयम की सम्यक् साधना करके कर्म से मुक्त हो सकता है।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- जं किंचुवक्कम जाणे, आउ खेमस्समप्पणो।
तस्सेव अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज्ज पंडिए॥6॥ छाया- यं कञ्चन उपक्रमं जानीयात्, आयुःक्षेमस्य आत्मनः।
तस्यैव अन्तरकाले, क्षिप्रं शिक्षेत पण्डितः ॥ पदार्थ-जं अप्पणो-यदि स्वात्मा की। आउखेमस्स-आयु को क्षेम रूप से यापन-बिताने का। किंचुवक्कम-किंचिन्मात्र-बहुत कम। उवक्कम-उपाय। जाणे-जानता हो तो वह। तस्स-उस संलेखना काल के। अन्तरद्धाए-मध्य में। खिप्पं-शीघ्र ही। पंडिए सिक्खिज्ज-उस भक्त परिज्ञा आदि से पंडित मरण को स्वीकार करे।
मूलार्थ-यदि मुनि अपनी (आत्मा की) आयु को क्षेम-समाधि पूर्वक बिताने का उपाय जानता हो तो वह उस उपाय को संलेखना के मध्य में ही ग्रहण कर ले। यदि कभी अकस्मात् रोग का आक्रमण हो जाए तो वह शीघ्र ही भक्त परिज्ञा आदि संलेखना को स्वीकार करके पंडितमरण को प्राप्त करे। हिन्दी-विवेचन
यदि संलेखना के काल में कोई ऐसा रोग उत्पन्न हो जाए कि संलेखना का काल पूरा होने के पूर्व ही उस रोग से मृत्यु की संभावना हो तो उस समय साधक संलेखना को छोड़कर औषध के द्वारा रोग को उपशान्त करके फिर से संलेखना आरम्भ कर दे। यदि कोई व्याधि तेल आदि की मालिश से शान्त हो जाती हो तो वैसा प्रयत्न करे
और यदि वह व्याधि शान्त नहीं होती हो या उसके उग्र रूप धारण कर लेने से ऐसा प्रतीत होता हो कि इससे जल्दी ही प्राणान्त होने वाला है, तो साधक भक्तप्रत्याख्यान आदि अनशन स्वीकार करके समाधि मरण को प्राप्त करे।
इससे स्पष्ट होता है कि साधक को आत्महत्या की अनुमति नहीं है। जहां तक