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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अनशन को स्वीकार करने वाला साधक परीषहों के उत्पन्न होने पर भी क्रोध न करके समभावपूर्वक उन्हें सहन करे, इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- संसप्पगा य जे पाणा जे य उड्ढमहेचरा।
भुजंति मंससोणियं, न छणे न पमज्जए॥9॥ छाया- संसर्पकाश्च ये प्राणा (प्राणिनः) ये चोर्ध्वाधश्चरा।
भुंजते मांस शोणितं, न क्षणुयात् न प्रमार्जयेत्॥ पदार्थ-य-पुनः । जे-जो। संसप्पगा-चींटी और श्रृगाल आदि। जे-जो। पाणा-प्राणी हैं। य-पुनः। जे-जो। उढं-आकाश में उड़ने वाले प्राणी। अहेचराबिलों में रहने वाले प्राणी जब। मंससोणियं-मांस और खून को। भुजंति-खाते हैं तब। न छणे-मुनि उनको न हाथ से हटाए और। न पमज्जए-न रजोहरण से " प्रमार्जन करे, अर्थात् दूर हटाए। .
मूलार्थ-अनशन व्रत को स्वीकार करने वाले मुनि के शरीर में स्थित मांस एवं रक्त को यदि कोई भी चींटी-मच्छर आदि जन्तु, गृध्र आदि पक्षी एवं सिंह आदि हिंसक पशु मांस खाए या रक्त पीए तो मुनि न तो उन्हें हाथ से मारे और न रजोहरण से दूर करे। हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि समभाव पूर्वक परीषहों को सहन करने वाला' मुनि ही कर्मों से मुक्त हो सकता है। प्रस्तुत सूत्र में भी यही बताया गया है कि अनशन व्रत को स्वीकार करने वाले मुनि को उत्पन्न होने वाले सभी परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। यदि कोई चींटी, मच्छर आदि जन्तु, सर्प-नेवला आदि हिंसक जन्तु, गृध्र आदि पक्षी और सिंह, ऋगाल आदि हिंस्र पशु अनशन व्रत को स्वीकार किए हुए मुनि के शरीर पर डंक मारते हैं या उसके शरीर में स्थित मांस एवं खून को खाते-पीते हैं, तो उस समय मुनि उस वेदना को समभावपूर्वक सहन करे, किन्तु अपने हाथ से न किसी को मारे, न परिताप दे और न किसी प्राणी को रजोहरण से हटाए। इस सूत्र में साधक की साधना की पराकाष्ठा बताई गई है। साधक साधना करते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है कि उसका अपने शरीर पर कोई ममत्व नहीं रह जाता