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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 7 776 के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता है। संसार का अंत करने वाला है, नाशवान शरीर को त्याग करने का इच्छुक है। नानाविध परीषहोपसर्गों को सहन करने में समर्थ है। जैनागम में आस्था रखने वाला और भयंकर प्रतिज्ञा का परिपालक है! उसका काल पर्याय कर्मों का नाशक है। यह पूर्वोक्त मृत्यु-मोह से रहित है। अतः यह हितकारी है, सुखकारी है, क्षेमकारी है, कल्याणकारी है और भवान्तर में साथ जानेवाली है। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन साधु का जीवन साधना का जीवन है। अतः उसे न जीने में हर्ष है और न मृत्यु में दुःख है। उसका समस्त समय साधना में बीतता है। मृत्यु भी साधना में ही गुजरती है। इसलिए उसकी मृत्यु भी सफल मृत्यु है। इसलिए आगमकारों ने उसे पंडितमरण कहा है। रोगादि से या तपस्या से शरीर क्षीण एवं शक्तिहीन होने पर साधक घबराता नहीं, परन्तु वह समभाव पूर्वक आने वाले परीषहों को सहता हुआ मृत्यु का स्वागत करता है। उस समय वह आहार आदि का त्याग करके शान्त भाव से पंडितमरण को प्राप्त करता है। प्रस्तुत अध्ययन में मरण के तीन प्रकार बताए गए हैं-1-भक्त प्रत्याख्यान, 2-इंगित मरण और 3-पादोपगमन। तीनों अनशन जीवनपर्यन्त के लिए होते हैं। इनमें अन्तर इतना ही है कि भक्त प्रत्याख्यान में केवल आहार एवं कषाय का त्याग होता है, इसके अतिरिक्त अनशन काल में साधक एक स्थान से दूसरे स्थान में आ जा सकता है। परन्तु, इंगित मरण में भूमि की मर्यादा होती है, वह मर्यादित भूमि से बाहर आ-जा नहीं सकता है। पादोपगमन में पेशाब-शौच आदि आवश्यक क्रियाओं के अतिरिक्त शारीरिक अंग-उपांगों का संकोच-विस्तार एवं हलन-चलन आदि सभी क्रियाओं का त्याग होता है। इस प्रकार अंतिम समय निकट आने पर साधक तीनों प्रकार की मृत्यु में से किसी एक मृत्यु को स्वीकार करके पंडितमरण को प्राप्त करता है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। ॥ सप्तम उद्देशक समाप्त ॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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