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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध राजधानी में। अणुपविसित्ता-प्रवेश करके। तणाई जाइज्जा-तृणों की याचना करे। जाव संथरिज्जा-यावत् (शेष पाठ पूर्ववत्) तृणों को बिछाए। इत्थवि समए-इस समय में। कायं च जोगं च-वह काय योग को, अर्थात् शरीर को संकोचने और पसारने की क्रिया आदि। च-और। इरियं च-चलने-फिरने आदि का। पच्चक्खाइन्जा-प्रत्याख्यान करे। च शब्द से वचन योग के प्रयोग करने का भी प्रत्याख्यान करे। तं-वह पादोपगमन रूप अनशन। सच्चं-सत्य है। सच्चावाई-सत्यवादी है। ओए-वह राग-द्वेष से रहित। तिन्ने-संसार सागर से तीर्ण। छिन्नकहकहे-विकथादि का परित्यागी। आइयठे-जीवाजीवादि पदार्थों को जानकर साधु। अणाइए-जिसने संसार का अन्त कर दिया है। भेउरं कायं-अपनी नाशवान काया को। चिच्चा-छोड़कर। णं-पूर्ववत्। विरूवरूवे-नाना प्रकार के। परीसहोवसग्गे-परीषह उपसर्गों को। संविहणिय-सहन करता है। अस्सि-उसे इस जिन प्रवचन में। विस्संभणाए-विश्वास होने से। भेरवमणुचिन्ने-उसने भयंकर प्रतिज्ञा को ग्रहण किया है। तत्थवि-वहां पर भी। तस्स-उस साधु की। कालपरियाए-काल पर्याय और। तत्थ-वहां पर। से वि-वह भी। वियंतिकारए-कर्मों के क्षय करने वाले हैं। इच्चेयं-यह पूर्वोक्त मृत्यु। विमोहाययणं-मोह से रहित होने का स्थान है। हियं-इसलिए यह मृत्यु हितकारी है। सुहं-सुखकारी है। खमं-सदर्थ है। निस्सेसं-कल्याणकारी है। अणुगामियं-भवान्तर में साथ जाने वाली है। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ-जिस भिक्षु का यह अभिप्राय हो कि मैं ग्लान हूं, रोगाक्रान्त हूं। अतः मैं इस समय अनुक्रम से इस शरीर को संयमसाधना में नहीं लगा सकता हूं, तो वह भिक्षु अनुक्रम से आहार का संक्षेप करे और कषायों को स्वल्प बनाए। ऐसा करके वह समाधियुक्त मुनि फलक की भांति सहनशील होकर मृत्यु के लिए उद्यत होकर तथा शरीर के सन्ताप से रहित होकर ग्राम, नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके, तृणों की याचना कर के गुफादि निर्दोष स्थान में ले जाकर उसे बिछावे। इस स्थान पर भी वह इस समय काय के व्यापार और वचन के व्यापार तथा मन के अशुभ संकल्पों का प्रत्याख्यान करे। यह पादोपगमन अनशन सत्यवादी है, राग और द्वेष से रहित संसारसमुद्र से पार होने वाला है, काम आदि विकथाओं का त्यागी है, पदार्थो -
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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