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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 7
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मूलार्थ-यदि मुनि लज्जा को न जीत सके तो वस्त्र धारण कर ले और यदि वह लज्जा को जीत सकता है तो अचेलकता में पराक्रम करे। जो मुनि अचेलक अवस्था में तृणों के स्पर्श, शीत के स्पर्श, उष्ण के स्पर्श, डांस-मच्छरादि के स्पर्श एक जाति के या अन्य जाति तथा नाना प्रकार के स्पर्शों के स्पर्शित होने पर उन्हें समभाव से सहन करता है, वह कर्मक्षय के कारणों का ज्ञाता मुनि सम्यग् दर्शन एवं समभाव का परिज्ञान करे।
हिन्दी-विवेचन ___प्रस्तुत सूत्र में इस बात को और स्पष्ट कर दिया गया है कि जो मुनि लज्जा एवं परीषहों को जीतने में समर्थ है, वह वस्त्र का उपयोग न करे। इससे स्पष्ट हो गया कि वस्त्र केवल संयमसुरक्षा के लिए है, न कि शरीर की शोभा एवं शृंगार के लिए। अतः साधु को सदा समभाव पूर्वक परीषहों को सहते हुए संयम में संलग्न रहना चाहिए। जो मुनि साधना के स्वरूप एवं समभाव को सम्यक्तया जानता है, वह परीषहों के उत्पन्न होने पर अपने पथ से विचलित नहीं होता है। अतः साधक को सदा समभाव की साधना में संलग्न रहना चाहिए और यदि उसमें शीत आदि के परीषहों को एवं लज्जा को जीतने की क्षमता है तो उसे वस्त्र का त्याग कर देना चाहिए और यदि इतनी क्षमता नहीं है तो वह कम-से-कम कटिबन्ध (चोल पट्टक) या मर्यादित वस्त्र रख सकता है।
इसके बाद प्रतिमासम्पन्न मुनि के अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु दलइस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि 1 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आह? दलइस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि 2 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ अहं च खलु असणं वा 4 आहटु नो दलइस्सामि आहडं च साइज्जिस्सामि 3 जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु नो दलइस्सामि