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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
इससे स्पष्ट होता है कि वस्त्र केवल लज्जा एवं शीत निवारणार्थ है। इससे साधना का कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि परिग्रह पदार्थ में नहीं, ममता में है। आगमों एवं तत्त्वार्थ सूत्र दोनों में मूर्छा को परिग्रह माना है। यदि शरीर पर एवं शुभ कार्य तपस्या आदि पर भी आसक्ति है, तो वहां भी परिग्रह लगेगा और यदि उन पर एवं वस्त्रों पर तथा अन्य उपकरणों पर ममत्व भाव नहीं है, तो परिग्रह नहीं लगेगा। इससे यह सिद्ध होता है कि साधुत्व अनासक्त भाव में है, राग-द्वेष से रहित होने की साधना में है।
इस बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं आगममाणे जाव समभिजाणिया॥221॥
छाया-अथवा तत्र पराक्रममाणं भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजःस्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एकतरान् अन्यतरान् विरूपरूपान् स्पर्शान् अधिसहते अचेलः लाघविक आगमयन् यावत् समभिजानीयात्।
पदार्थ-अदुवा-अथवा। तत्थ-संयम में। परक्कमंतं-पराक्रम,करते हुए मुनि को। भुज्जो-फिर। अचेलं-अचेलक को। तणफासा-तृणों के स्पर्श । फुसंति-स्पर्शित होते हैं। सीयफासा-शीत स्पर्श। फुसंति-स्पर्शित होते हैं। तेउफासा-उष्ण स्पर्श। फुसंति-स्पर्शित होते हैं। दंसमसगफासा-दंशमशक के स्पर्श। फुसंति-स्पर्शित होते हैं। एगयरे-वह एक जाति के स्पर्शों को तथा। अन्नयरे-अन्य जाति के स्पर्शों को। विरूवरूवे-नाना प्रकार के। फासे-स्पर्शों को। अहियासेइ-सहन करता है, और। अचेले-अचेल अवस्था में रहकर । लाघवियं-कर्मों की लाघवता को। आगममाणे-जानता हुआ। जाव-यावत्। समभिजाणिया-सम्यक् दर्शन या समभाव को सर्व प्रकार से जानता है।
1. यह धारणा दिगम्बर सम्प्रदाय को भी मान्य है।