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________________ 767 अष्टम अध्ययन, उद्देशक 7 को । अहियासित्तए - सहन करने में समर्थ हूं, किन्तु । अहं - मैं । हिरिपडिच्छायणं च-लज्जा के कारण गुह्य प्रदेश के आच्छादन रूप वस्त्र का परित्याग करने में। नो संचाएमि-समर्थ नहीं हूं । एवं - इस कारण से । से- उस भिक्षु को । कडिबंधणंकटिबन्धन–चोलपट्टा। धारितए - धारण करना । कप्पे - कल्पता है । मूलार्थ - जो प्रतिमासंपन्न अचेलक भिक्षु संयम में अवस्थित है और जिसका यह अभिप्राय होता है कि मैं तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, डांस-मच्छरादि के स्पर्श; एक जाति के स्पर्श, अन्य जाति के स्पर्श और नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शो को तो सहन कर सकता हूं, किन्तु मैं सर्वथा नग्न हो कर लज्जा को जीतने में असमर्थ हूं। ऐसी स्थिति में उस मुनि को कटिबन्ध - चोलपट्टा रखना कल्पता है । हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अचेलक मुनि का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि जो मुनि शीत आदि के परीषहों को सहने में तथा लज्जा को जीतने में समर्थ है, वह वस्त्र का सर्वथा त्याग कर दे। वह गुनि केवल मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के अतिरिक्त कोई वस्त्र न रखे। परन्तु, जो मुनि लज्जा एवं घृणा को जीतने में सक्षम नहीं है, वह कटिबन्धु, अर्थात् चोलपट्टक ( धोती के स्थान में पहनने का वस्त्र) रखे और गांव या शहर में भिक्षा आदि के लिए जाते समय उसका उपयोग करे । परन्तु, जंगल एवं एकान्त स्थान में निर्वस्त्र होकर साधना करे । यह हम चौथे उद्देशक में स्पष्ट कर चुके हैं कि साधना की सफलता या मुक्ति नग्नता में है। वह नग्नता शरीरमात्र की नहीं, आत्मा की होनी चाहिए । जब आत्मा कर्मआवरण से सर्वथा अनावृत हो जाएगी, तभी मुक्ति प्राप्त होगी और उसके लिए आवश्यक है राग-द्वेष को क्षय करना । यह क्रिया वस्त्ररहित भी की जा सकती है और वस्त्रसहित भी। मर्यादित वस्त्र रखते हुए भी जो साधु समभाव के द्वारा राग-द्वेष पर विजय पाने में संलग्न है, उसकी साधना सफलता की ओर है और यदि कोई साधु वस्त्र का त्याग करके भी राग-द्वेष एवं विषम भाव में घूमता है तो उसकी साधना साध्य की ओर ले जाने वाली नहीं है । अतः असाधुता वस्त्र में नहीं, कषायों में है, ममता में है, राग-द्वेष में है। इन विकारों से युक्त वस्त्रयुक्त एवं वस्त्ररहित कोई भी साधक क्यों न हो, वास्तव में वह साधुता से दूर है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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