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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
शरीर के सन्ताप से रहित बने। वह भिक्षु संयम में संलग्न एवं नियमित क्रियानुष्ठान में लगा रहने से समाधिपूर्वक इंगितमरण को प्राप्त कर लेता है ।
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हिन्दी - विवेचन
एकत्व भावना के चिन्तन में संलग्न मुनि अनासक्त भाव से रुक्ष आहार करते हुए शरीर में क्षीणता एवं दुर्बलता का अनुभव करे और अपनी मृत्यु को निकट जान ले तो उस समय वह आहार का त्याग करके कषायों को उपशान्त करने का प्रयत्न करे । इस तरह कषायों को उपशान्त करने से उसे समाधि भाव की प्राप्ति होगी । क्योंकि, चित्त में अशान्ति का कारण कषाय वृत्ति है, उसका नाश होते ही अशान्ति भी समाप्त हो जाएगी और साधक परम शान्ति को प्राप्त कर लेगा ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'समाहियच्चे' का अर्थ है - जिस साधक ने सम्यक्तया शरीर एवं मन पर अधिकार कर लिया है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह निकला कि कषायों पर विजय पाने वाला साधक ही समाधिस्थ कहलाता है । 'फलगावयट्ठी' शब्द से यह बात परिपुष्ट होती है । जैसे काष्ठ फलक शीत- ताप आदि को बिना किसी हर्ष - शोक के सहता है तथा कारीगर की आरी के नीचे आकर कटने पर भी अपने रूप में रहता है। उसी तरह साधक को प्रत्येक स्थिति में समभाव पूर्वक अपनी आत्म-साधना में स्थित रहना चाहिए। मान-सम्मान के समय न हर्ष करना चाहिए और न अपमान-तिरस्कार एवं प्रहार के समय शोक या किसी पर द्वेष भाव लाना चाहिए।
इस तरह शारीरिक शक्ति का ह्रास हो जाने पर मुनि अनशन व्रत को स्वीकार करके समभावपूर्वक समाधिमरण को प्राप्त करे। यह मरण कहां पर प्राप्त करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - अणु पविसित्ता गामं वा नगरं वा खेडं वा कव्वडं वा मंडवं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा सन्निवेसं वा नेगमं वा रायहाणिं वा तणाई जाइज्जा तणाई जाइत्ता से तमाया एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणग दगमट्टियमक्कडासंताणए पडिलेहिय 2 पमज्जिय 2 तणाई संथरिज्जा, तणाई संथरित्ता इत्थवि