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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 6
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सूख जाता है, उस समय साधक के मन में समाधि मरण की भावना उत्पन्न होती है। उसी भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम-जस्स णं भिक्खस्स एवं भवइ से गिलामि च खलु अहं इमंमि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए से अणुपव्वेण आहारं संवट्टिज्जा अणुपुव्वेण आहारं संवट्टित्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिवुडच्चे॥218॥
छाया-यस्य भिक्षोः एवं भवति तत् ग्लायाभि च खलु अहं अस्मिन् समये इदं शरीरकं आनुपूर्व्या परिबोढुं स भिक्षुः आनुपूर्व्या आहारंसंवर्तयेत् आनुपूर्व्या आहारं संवर्त्य कषायान् प्रतनून् कृत्वा समाहितार्चः फलकावस्थायी उत्थीय भिक्षुः अभिनिर्वृत्तार्चः।
पदार्थ-णं-वाक्यालंकार में है। जस्स-जिस। भिक्खुस्स-भिक्षु का। एवं भवइ-इस प्रकार का अभिप्राय होता है, कि। च-समुच्चय अर्थ में। से-तत् शब्द के अर्थ में। यहां तत् शब्द वाक्योपन्यासार्थ में है। च-समुच्चयार्थ में है। अहं-मैं। इमंमि-इस। समए-समय में। गिलामि-ग्लानि को प्राप्त हो रहा हूं अतः । इमं सरीरगं-इसलिए शरीर को। अणुपुव्वेणं-अनुक्रम से। परिवहित्तएक्रियानुष्ठान में नहीं लगा सकता। से-अतः वह भिक्षु। अणुपुव्वेणं-अनुक्रम से तप के द्वारा। आहारं संवटिज्जा-आहार का संक्षेप करे और। अणुपुब्वेणं-अनुक्रम से। आहार-आहार का। संवट्टित्ता-संक्षेप करके। कसाए-कषाय को। पयणुएकिच्चा-स्वल्प करके। फलगावयट्ठी-फलक लकड़ी के फटे की तरह अवस्थित। उहाय-मृत्यु के लिए उद्यत होकर। भिक्खू-भिक्षु। समाहियच्चे-समाधि को प्राप्त करे। अभिनिवुडच्चे-और शरीर के सन्ताप से रहित बने।
मूलार्थ-जिस भिक्षु का यह अध्यवसाय होता है कि इस समय मैं संयमसाधना का क्रियानुष्ठान करते हुए ग्लानि को प्राप्त हो रहा हूं। रोग से पीड़ित हो गया हूं। अतः मैं इस शरीर को क्रियानुष्ठान में भी नहीं लगा सकता हूं। ऐसा सोचकर वह भिक्षु अनुक्रम के तप के द्वारा आहार का संक्षेप करे और अनुक्रमेण आहार संक्षेप करता हुआ कषायों को स्वल्प-कम करके आत्मा को समाधि में स्थापित करे। रोगादि के आने पर वह फलकवत् सहनशील बनकर पंडितमरण के लिए उद्यत होकर