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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध करे। लाघवियं आगममाणे-क्योंकि आहार की लाघवता को जानता हुआ। से-वह। तवे-तप के। अभिसमन्नागए भवइ-सम्मुख होता है। जमेयं भगवयाभगवान ने जो भाव। पवेइयं-प्रतिपादन किया है। तमेवं-उस विषय को। अभिसमिच्चा-विचार कर। सव्वओ-साधक सर्व प्रकार से। सव्वत्ताए-सर्वात्मा से। सम्मत्तमेव-समभाव को। समभिजाणिया-सम्यक्तया जाने। ___ मूलार्थ-वह साधु या साध्वी आहार-पानी, खादिम और स्वादिम आदि पदार्थों का उपभोग करते समय बाएं कपोल से दाहिने कपोल की ओर तथा दाहिने से बाएं कपोल की ओर आस्वादन करता हुआ संचार न करे। किन्तु वह आहार का . आस्वादन न करता हुआ आहार की लाघवता को जानकर तप के सन्मुख होता है। जिस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया है, उसे साधु सर्व प्रकार और सर्वात्मभाव से सम्यक्तया जानने एवं समताभाव का परिपालन करने का प्रयत्न करे। हिन्दी-विवेचन
यह हम देख चुके हैं कि आसक्ति एवं तृष्णा कर्मबन्ध का कारण है। इसलिए साधक को अपने उपकरणों पर आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। इतना ही नहीं, अपितु खाद्य पदार्थों को भी आसक्त भाव से नहीं खाना चाहिए। साधु का आहार स्वाद के लिए नहीं, परन्तु संयमसाधना के लिए है या यों भी कह सकते हैं कि संयमसाधना
और शरीर को व्यवस्थित रखने के लिए उसे आहार करना पड़ता है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को जैसा भी प्रासुक एवं एषणीय आहार उपलब्ध हुआ हो, वह उसे बिना स्वाद लिए ही ग्रहण करे। इसमें यह भी बताया गया है कि रोटी आदि से ग्रास-कौर को मुंह में एक ओर से दूसरी ओर न ले जाए, अर्थात् इतनी जल्दी निगल जाए कि उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति मुंह के जिस भाग में कौर रखा है, उसके अतिरिक्त दूसरे भाग को भी न हो।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'हनु' शब्द का अर्थ ठोड़ी नहीं, गाल (मुंह का भीतरी भाग) किया गया है और वह मुंह में एक गाल से दूसरे गाल की ओर फिरता जाता है। यहां ठोड़ी का अर्थ प्रसंगोचित नहीं है।
इस प्रकार अनासक्त भाव से रूक्ष आहार करने से शरीर का रक्त एवं मांस