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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 6
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नहीं है और न मैं किसी का साथ दे सकता हूँ। क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने कृत कर्म के अनुसार सुख-दुःख का वेदन करती है। अतः कोई भी शक्ति उसमें परिवर्तन नहीं कर सकती है। स्वयं आत्मा ही अपने सम्यक पुरुषार्थ के द्वारा उस कर्म-बन्धन को तोड़कर मुक्त बन सकता है। इसलिए यह आत्मा अकेला ही सुख-दुःख का संवेदन करता है और कर्मबन्ध का कर्ता एवं हर्ता भी यह अकेला ही है। इस प्रकार अपने एकाकीपन का चिन्तन करने वाला साधक प्रत्येक परिस्थिति में संयम में संलग्न रहता है, वह परीषहों से घबराता नहीं। अतः साधक को सदा एकत्व भावना का चिन्तन करना चाहिए।
चिन्तनशील साधक को आहार कैसे करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं.. मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा4 आहारेमाणे नो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारिज्जा आसाएमाणे दाहिणाओ वामं हणुयं नो संचारिज्जा आसाएमाणे, से अणासाएमाणे लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्त मेव समभिजाणिया॥217॥
' छाया-स भिक्षुः वा भिक्षुणी वा अशनं वा 4 आहारयन्नो वामतो हनुतो दक्षिणां हनुं संचारयेत् आस्वादयन् दक्षिणतो वामां हर्नु (क) नोसंचारयेत् आस्वादयन स अनास्वादयन् लाघविकं आगमयन् तपःतस्य अभिसमन्वागतो भवति यदिदं भगवता प्रवेदितं तदिदं अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात्।
पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा-भिक्षु या। भिक्खुणी वा-भिक्षुणी-साध्वी। असणं वा-आहार-पानी, खादिम, स्वादिम आदि पदार्थों । आहरेमाणे-का उपभोग करते समय। वामाओ हणुयाओ-बाएं कपोल से। दाहिणं हणुयं-दाहिने कपोल में। आसाएमाणे-आस्वादन करता हुआ। नो संचारिजा-संचार न करे और। - आसाएमाणे-उन पदार्थों का आस्वादन करता हुआ। दाहिणाओ-दाहिने कपोल से। वामं हणुयं-बाएं कपोल में। नो संचारिजा-संचार न करे। से-परन्तु वह साधु। आसाएमाणे-अनास्वादन करता हुआ-पदार्थों का स्वाद न लेते हुए आहार