________________
758
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अपितु जीवरक्षा के लिए हैं-को छोड़कर शेष वस्त्रों का त्याग करके आत्मचिन्तन में संलग्न रहे।
साधक को आत्म-चिन्तन कैसे करना चाहिए, इस विषय में सूत्रकार कहते है
मूलम्-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ एगे अहमंसि न मे अत्थि कोइ न याहमवि कस्सवि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जाव समभिजाणिया॥216॥
छाया-यस्य णं भिक्षोरेवं भवति एकोऽहमस्मि नमेऽस्ति कोपि, न चाहमपि कस्यापि एवं स एकाकिनमेवं आत्मानं समभिजानीयात् लाघविकं आगमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति यावत् समभिजानीयात्।
पदार्थ-णं-यह वाक्यालंकार में है। जस्स-जिस का विचार। भिक्खुस्स-भिक्षु को। एवं-इस प्रकार। भवइ-होता है कि। एगे अहमंसि-मैं अकेला हूं। न मे अत्थि कोइ-मेरा कोई नहीं है और। न याहमवि-न मैं भी। कस्सवि-किसी का हूं। एवं-इस प्रकार। से-वह साधु। एगागिणमेव-अकेला ही। अप्पाणं-अपनी आत्मा को। समभिजाणिज्जा-सम्यक् प्रकार से जाने। लाघवियं-लाघवता को। आगममाणे-जानता हुआ व पालन करता हुआ। से-उसके। तवे-तप। अभिसमन्नागए भवइ-अभिमुख-सम्मुख होता है। जाव-यावत् । समभिजाणियासम्यक् दृष्टि भाव को व समभाव को सम्यक्तया जाने।
मूलार्थ-जिस भिक्षु का इस प्रकार का अध्यवसाय होता है कि मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है और न मैं भी किसी का हूं। इस प्रकार वह भिक्षु एकत्व भाव से सम्यक्तया आत्मा को जाने। क्योंकि आत्मा में लाघवता को उत्पन्न करता हुआ वह तप के सम्मुख होता है। अतः वह सम्यक्तया समभाव को जाने, जिससे वह आत्मा का विकास कर सके।
हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में आत्मा के एकत्व भाव के चिन्तन का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि साधक को यह सोचना-विचारना चाहिए कि इस संसार में मेरा कोई सहयोगी