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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 6
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गिम्हे पडिवन्ने-ग्रीष्म काल आ गया हो, तब। अहापरिजुन्नं-जो वस्त्र सर्वथा जीर्ण हो चुका है। वत्थं-उस वस्त्र को। परिविज्जा-परिष्ठापित कर दे-त्याग दे। अदुवा-अथवा। एगसाडे-एक चादर रक्खे। अदुवा-अथवा। अचेले-वस्त्र का त्याग करके अचेलक बन जाए और वह। लापवियं-लाघवता को। आगममाणेजानता हुआ। जाव-यावत्। सम्मत्तमेव-सम्यक्त्व या समभाव को। समभिजाणियासम्यक्तया जाने।
मूलार्थ-जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरे पात्र से युक्त है, उसको इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न नहीं होता कि शीतादि के लगने पर मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूंगा। यदि उसका वस्त्र सर्वथा जीर्ण हो गया है तो फिर वह दूसरे वस्त्र की याचना कर सकता है। याचना करने पर उसे जैसा वस्त्र मिले वह उसे उसी रूप में धारण करे और ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर जीर्ण वस्त्र को त्याग दे या एक शाटक-चादर रखे या अचेलक बन जाए। इस प्रकार वह लाघवता को प्राप्त होता हुआ सम्यक्तया समभाव को जाने। हिन्दी-विवेचन ___ प्रस्तुत सूत्र में अभिग्रहनिष्ठ मुनि का वर्णन करते हुए बताया गया है कि जिस मुनि ने एक वस्त्र और एक पात्र रखने की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि सर्दी लगने
पर दूसरा वस्त्र लेने की भावना न करे। प्रस्तुत अध्ययन के चौथे उद्देशक में तीन . वस्त्र की और पांचवें उद्देशक में दो वस्त्रों का प्रतिज्ञा करने वाले मुनियों का वर्णन किया गया है और प्रस्तुत उद्देशक में एक वस्त्र रखने वाले मुनि का वर्णन है। उत्तरोत्तर वस्त्र की संख्या में कमी का उल्लेख किया गया है, शेष वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए।
यह हम पहले बता चुके हैं कि आत्म-विकास के लिए समभाव की आवश्यकता है। वस्त्र-पात्र आदि उपकरण शरीर-सुरक्षा के लिए आवश्यक हैं। अतः जब तक साधक शीत आदि के परीषह को समभाव पूर्वक सहन करने में सक्षम नहीं है तथा लज्जा को नहीं जीत सकता है, तब तक उसे वस्त्र रखने की आवश्यकता है। इन कारणों के अभाव में, अर्थात् पूर्ण सक्षम होने पर वस्त्र की आवश्यकता नहीं रहती है। अतः ऐसी स्थिति में वह मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण-जो शरीररक्षा के लिए नहीं,