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________________ अष्टम अध्ययन : विमोक्ष षष्ठ उद्देशक पंचम उद्देशक में यह बताया गया है कि साधु अस्वस्थ अवस्था में भी अपने व्रतों एवं नियमों पर दृढ़ रहते हुए भक्त प्रत्याख्यान अनशन के द्वारा समाधिमरण को प्राप्त करे। अब प्रस्तुत उद्देशक में एकत्व भावना का चिन्तन करते हुए इङ्गित मरण के द्वारा समाधि मरण को प्राप्त करने का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिए पायबिईएण तस्सणं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइस्सामि से अहेसणिज्जं वत्थं जाइज्जा अहापरिग्गहियं वत्थं धारिज्जा जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्न वत्थं परिलविज्जा अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभि-जाणिया॥215॥ छाया-यः भिक्षुः एकेन वस्त्रेण पर्युषितः पात्रद्वितीयेन तस्य नैवं भवति, द्वितीय वस्त्रं याचिष्ये, स अर्थेषणीयं वस्त्रं याचेत् यथा परिगृहीतं वस्त्रं धारयेत् यावत् ग्रीष्मः प्रतिपन्नः यथा परिजीर्णवस्त्रं परिष्ठापयेत् अथवा एकशाटकः अथवा अचेलः लाघविकम् आगमयन् यावत् सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात्। पदार्थ-जे-जो। भिक्खू-भिक्षु-साधु। एगेण वत्थेण-एक वस्त्र और। पा बिईएण-द्वितीय पात्र से। परिसिए-युक्त है। णं-वाक्यालंकार है। तस्स-उस भिक्षु के मन में। एवं-इस प्रकार का। नो भवइ-विचार नहीं होता है कि वह शीतादि के लगने पर मैं। बिइयं-द्वितीय। वत्थं-वस्त्र की। जाइस्सामि-याचना करूंगा, यदि उसका वस्त्र जीर्ण हो गया हो तो। से-वह। अहेसणिज्जं वत्थं जाइज्जा-एषणीय वस्त्र की याचना करे, और। अहापरिग्गहियं-याचना करने पर जैसा उसे वस्त्र मिले। वत्थं वैसे ही वस्त्र को। धारिज्जा-धारण करे। जाव-यावत्।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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