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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 5
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होने वाले अशनादि पदार्थ साधु के लिए बनाकर या अपने घर से लाकर उसे दे या उन्हें ग्रहण करने के लिए साधु से विनती करे, तो साधु पहले ही उस आहार को देखकर उस गृहस्थ से कहे कि हे आयुष्मान् ! मुझे यह लाया हुआ तथा इसी प्रकार का दूसरा सदोष आहारादि पदार्थ स्वीकार करना एवं अपने उपभोग में लेना नहीं कल्पता। अतः मैं इसे ग्रहण नहीं कर सकता। हिन्दी-विवेचन . पूर्व सूत्र में तीन वस्त्र रखने वाले मुनि का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि दो वस्त्र एवं एक पात्र रखने वाला मुनि शीत आदि का परीषह उत्पन्न होने पर भी तीसरे वस्त्र की याचना न करे। वस्त्र संबंधी पूरा वर्णन पूर्व सूत्र की तरह किया गया है। ___ यदि कभी वह अभिग्रहनिष्ठ मुनि अस्वस्थ हो जाए और घरों में आहार आदि के लिए जाने की शक्ति न रहे। वह भिक्षु ऐसा कहे कि मैं इस समय एक घर से दूसरे घर में भिक्षा के लिए नहीं जा सकता। उस समय उसके वचनों को सुनकर कोई सद्गृहस्थ अपने घर से साधु के लिए भोजन बनाकर साधु के स्थान में लाकर उसे दे, तो वह साधु उसे स्पष्ट शब्दों में कहे कि मुझे ऐसा आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है। साधु के लिए आरम्भ करके बनाया गया आहार तथा यदि कभी निर्दोष आहार भी हो तो भी साधु के लिए उसके स्थान पर लाया हुआ आहार लेना नहीं कल्पता। क्योंकि, इसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है और साधु आहार के दोषों की गवेषणा करके उनसे बच भी नहीं सकता है। इसलिए साधु अस्वस्थ अवस्था में भी ऐसा सदोष आहार स्वीकार न करे, परन्तु समभाव पूर्वक रोग एवं भूख के परीषह को सहन करे।
इसके अतिरिक्त अभिग्रहनिष्ठ मुनि के अन्य कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुए। सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंखं साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि, अहं वावि खलु अपडिन्नत्तो पडिन्नत्तस्स