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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वातादि रोगों से स्पृष्ट होने से । अबलो अहमंसि - मैं निर्बल हूं अतः। गिहंतर संकमणं - एक घर से दूसरे घर में संक्रमण करने-जाने को तथा । भिक्खायरियंभिक्षाचरी - आहारादि गवेषणा के लिए घरों में । गमणाय - जाने के लिए । नालमहमंसि - मैं समर्थ नहीं हूं । से- उसे । एवं - इस प्रकार । वयंतस्स - बोलते हुए सुनकर। परो–गृहस्थ। अभिहडं - जीवादि का उपमर्दन करके बनाया हुआ। असणं वा 4- आहार-पानी आदि खाद्य पदार्थ । आहट्टु - घर से लाकर । दलइज्जादेवे। से- वह भिक्षु । पुव्वामेव - पहले ही । आलोइज्जा - -यह विचार करे कि यह आहार दोष युक्त है, अतः। आउसंतो - हे आयुष्मन् गृहस्थ । खलु - निश्चय अर्थ में जानना । अभिहडं - सम्मुख लाया हुआ । असणं वा 4 - आहारादि । भुत्तएवा - खाना । पायएवा - पीना। नो कप्पइ - नहीं कल्पता है तथा । एयप्पगारे - इसी प्रकार से। अन्ने वा–अन्य उद्गमादि दोषयुक्त आहार भी मुझे ग्रहण करना नहीं
कल्पता है ।
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मूलार्थ - जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र से युक्त है, उसे यह विचार नहीं होता है कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूंगा । यदि उसके पास दो वस्त्रों से कम हों तो वह निर्दोष वस्त्र की याचना कर लेता है । जैसा कि पूर्व में वर्णन कर चुके हैं। यह सब भिक्षु का आचार है। जब उसे यह प्रतीत हो कि अब हेमन्त काल, शीत काल व्यतीत हो गया और ग्रीष्म काल - उष्णकाल आ गया है, तब वह जीर्ण फटे-पुराने वस्त्रों का त्याग कर दे। यदि उसे शीतादि के पड़ने की संभावना हो तो वह ऐसा वस्त्र अपने पास रख ले जो अधिक जीर्ण नहीं हुआ है या वह वस्त्र कम कर दे या एक चादर मात्र अपने पास रखे या मुखवस्त्रिका और रज़ोहरण को छोड़ कर अवशिष्ट वस्त्र का त्याग करके अचेलक बन जावे । वह भिक्षु लाघवता प्राप्त करने के लिए वस्त्रों का परित्याग करे । वस्त्रपरित्याग से कायक्लेश रूप तप होता है। भगवान महावीर ने जिस आचार का प्रतिपादन किया है, उसका विचार करे और सर्वप्रकार तथा सर्वात्मभाव से सम्यक्त्व या समत्व - समभाव को जाने । जिस भिक्षु का इस प्रकार का अध्यवसाय होता है कि मैं रोगादि के स्पर्श से दुर्बल होने . से एक घर से दूसरे घर में भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ हूँ, उसकी इस वाणी को सुनकर या भाव को समझ कर यदि कोई सद्गृहस्थ जीवों के उपमर्दन से सम्पन्न