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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
है। हियं-हितकारी है। सुहं-सुखकारी है। खमं-यथार्थ। निस्सेसं-मोक्ष प्रदात्री है। आणुगामियं-साथ चलने वाली है। त्तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूं।
मूलार्थ-जिस भिक्षु को रोगादि के स्पर्श होने से अथवा शीतादि परीषहों से इस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं कि मैं शीतादि के स्पर्श को सहन नहीं कर सकता हूं। फिर भी वह संयम एवं ज्ञान संपन्न साधु किसी भी औषध का सेवन न करके भी संयम में स्थित है। उस तपस्वी मुनि को ब्रह्मचर्यादि की रक्षा के लिये फांसी आदि से मृत्यु का आलिंगन करना भी श्रेयस्कर है। उसकी वह मृत्यु कर्म-नाशक मानी गई है। वह मृत्यु उसके मोह को दूर करने वाली है। अतः उसके लिए वह मृत्यु हितकारी है, सुखकारी है और शक्ति एवं मोक्ष-प्रदायिनी है। वह संयम की रक्षा के लिए ऐसा कार्य करता है, अतः उससे निर्जरा एवं पुण्यबंध भी होता है। इसलिए यह मृत्यु भवान्तर में साथ जाने वाला भी है। हिन्दी-विवेचन
साधना के मार्ग में अनेक परीषह उत्पन्न होते हैं, उन पर विजय पाने का प्रयत्न करना साधु का परम कर्तव्य है। परन्तु, अनुकूल या प्रतिकूलं परीषहों से घबराकर संयम का त्याग करना उसके लिए श्रेयस्कर नहीं है। अपने व्रतों से भ्रष्ट होने वाला साधक अपने जीवन का पतन करता है और भवभ्रमण को बढ़ाता है। अतः ऐसी स्थिति आने पर विषादि खाकर या अनशन करके मर जाना उसके लिए अच्छा है, परन्तु संयमपथ का त्याग करना अच्छा नहीं है। जिस समय राजमती को गुफा के एकान्त स्थान में देखकर रथनेमि विचलित हो उठता है और उससे विषय-भोग भोगने की प्रार्थना करता है, उस समय राजमती उसे सद्बोध देते हुए यही बात कहती है कि हे मुनि! तुझे धिक्कार है कि तू वमन किए त्यागे हुए भोगों की पुनः इच्छा करता है। इस जीवन की अपेक्षा तेरे लिए मर जाना श्रेयस्कर है।
जैन आगमों में आत्महत्या करने का निषेध किया गया है। विष खाकर या फांसी लगा कर मरने वाले को बाल-अज्ञानी कहा गया है। परन्तु, विवेक एवं ज्ञान
1. धिरत्थु तेऽजसोकामी जो तं जीविय कारणा,
वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे।
-दशवैकालिक, 2,7