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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 4
• इस तरह प्रबुद्ध पुरुष भगवान के वचनों पर विश्वास करके समभावपूर्वक परीषहों को सहते हुए कर्मों से अनावृत होने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु, जो भगवान के मार्ग को सम्यक्तया नहीं जानते हैं, जब उनके सामने परीषह आते हैं, तब उनकी क्या स्थिति होती है, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स काल परियाए, सेऽवि तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, निस्सेसं आणुगामियं, तिबेमि॥212॥
छाया-यस्य (ण) मिक्षो रेवं भवति-स्पृष्टः खलु अहमस्मि नालमहमस्मि शीतस्पर्शमध्यासयितुं स वसुमान् सर्वसमन्वाऽतप्रज्ञानेनात्मना कश्चिद-कारणतया . आवृत्तः तपस्विनस्तत् श्रेयः यदैकः वेहानसादिकं तत्रापि तस्य कालपर्यायः सोऽपि तत्र व्यन्तिकारकः इत्येतत् विमोहायतनं हितं, सुखं । क्षमं निश्रेयसमानुगामिकमिति ब्रवीमि।
पदार्थ-णं-वाक्यलंकार में है। जस्स-जिस। भिक्खुस्स-भिक्षु के। एवं भवइ-इस प्रकार का अध्यवसाय होता है कि। पुट्ठो अहमंसि-मैं शीतादि परीषहों से स्पर्शित हो गया हूं। खलु-अवधारणार्थ में है। अहमंसि-मैं। सीयफासंशीत स्पर्श को। अहियासित्तए-सहन करने में। नालं-समर्थ नहीं हूं। से-वह साधु । वसुमं-संयम रूप धन से युक्त। सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं-सब तरह से ज्ञान सम्पन्न होने से। अप्पाणेणं-अपनी ज्ञान-निष्ठ आत्मा से। केइ-किसी उपसर्गादि के उपस्थित होने पर। अकरणयाए–ओषधि के न करने से। आउट्टे-संयम में ठहरता है-अवस्थित है। तवस्सिणो-उस तपस्वी को। हु-जिससे। तं-उसके लिये। सेयं-मृत्यु श्रेयस्कर है। जमेगे-जो एक। विहमाइए-फांसी लगा कर मर जाना। तत्थावि-वह मृत्यु। तस्स-जो कि उसका। कासपरियाए-काल पर्याय बनती है। सेऽवि-वह भी। तत्थ-उस समय। विअंतिकारए-अन्त क्रिया करने वाला है। इच्वेयं-यह पूर्वोक्त मृत्यु। विमोहायतणं-मोह के दूर करने का स्थान