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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध __छाया-यदेतद् भगवता प्रवेदित तदेव अभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात्।
पदार्थ-जमेयं-जो यह। भगवा-भगवान महावीर ने। पवेइयं-प्रतिपादन किया है। तमेव-उसी को। अभिसमिच्चा-विचार कर। सव्वओ-सब तरह से। सव्वत्ताए-सर्व आत्मतया। सम्मत्तमेव-सम्यक्त्व या समभाव को। समभिजाणिज्जासम्यक्तया जाने।
मूलार्थ--भगवान महावीर ने आगम में जो सचेलक एवं अचेलक अवस्थाओं का प्रतिपादन किया है, उसे सब तरह से, सर्वात्मतया तथा समभावपूर्वक अथवा सम्यक्तया जाने। हिन्दी-विवेचन
सचेलकत्व और अचेलकत्व दोनों अवस्थाओं में साधक अपने साध्य की ओर बढ़ता है। वस्त्र रखना या नहीं रखना ये दोनों साध्य-सिद्धि के साधन हैं। साध्य की प्राप्ति के लिए नग्नत्व का महत्त्व है, परन्तु द्रव्य नग्नत्व का नहीं। यह बिलकुल सत्य है कि जब तक आत्मा कर्म से आवृत रहेगी, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती, भले ही वह वस्त्र से अनावृत हो। मोक्षप्राप्ति के लिए राग-द्वेष एवं कर्मों से सर्वथा अनावृत होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। आत्मा को अनावृत बनाने के लिए राग-द्वेष, कषाय एवं कर्मबन्धन के अन्य कारणों का त्याग करना अथवा आस्रव का निरोध करना जरूरी है, न कि वस्त्र का त्याग करना। यदि कोई साधक लज्जा आदि को. जीतने में समर्थ है, तो वह वस्त्र का भी त्याग कर सकता है और यदि वह लज्जा. आदि के परीषहों पर विजय पाने की क्षमता नहीं रखता है, तो स्वल्प, मर्यादित वस्त्र रखकर भी राग-द्वेष पर विजय पाने की या आत्मा को कर्मों से सर्वथा अनावृत करने की साधना कर सकता है। ___ इस तरह भगवान द्वारा प्ररूपित सचेल एवं अचेल दोनों मार्गों का सम्यक्तया अवलोकन करके साधक को अपनी योग्यतानुसार मार्ग का अनुकरण करके राग-द्वेष पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी एक मार्ग को ही एकान्त रूप से श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं मानना चाहिए, क्योंकि, दोनों मार्ग आत्मा को कर्मों से अनावृत करने के साधन हैं, अतः दोनों ही श्रेष्ठ हैं।