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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 4
मूलार्थ - - वस्त्र के परित्याग से लाघवता होती है और वस्त्राभाव के कारण होने वाले परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने से वह साधक तप से सम्मुख होता है, अर्थात् वस्त्र का त्याग भी तपस्या है।
हिन्दी - विवेचन
कर्म के बोझ से हलका बनना, अर्थात् उसका क्षय - नाश करना ही साधना का उद्देश्य है। हलकापन त्याग से होता है। इसलिए मुनि - जीवन त्याग का मार्ग है । वह सदा अपने जीवन को कम बोझिल बनाने का प्रयत्न करता है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि वस्त्र का त्याग कर देने से जीवन में लाघवता - हलकापन आ
है । वस्त्र के अभाव में शीत, दंशमशक-मच्छर आदि जन्तुओं का, तृण स्पर्श आदि परीषहों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है । परन्तु, इन्हें समभाव पूर्वक सहन करने से तप होता है और तप से कर्मों की निर्जरा होती है। इस तरह साधक कर्म के बोझ से हलका होता हुआ सदा आत्म- अभ्युदय की ओर बढ़ता है।
वस्त्र के त्याग से जीवन में लाघवता आती है । प्रतिलेखना में लगने वाला समय भी बच जाता है। इससे स्वाध्याय एवं ध्यान के लिए अधिक समय मिलने लगता है, और स्वाध्याय-ध्यान से आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है। वस्तुतः आत्म-विकास की दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र महत्त्वपूर्ण है । इसी भाव को लेकर स्थानाङ्ग सूत्र में 5 कारणों से अचेलकत्व को प्रशस्त बताया है 2 - 1 - इससे प्रतिलेखना कम हो जाती है, 2 - वह • विश्वस्त होता है, 3 – उससे तप होता है, 4 - लाघवता होती है और 5- इन्द्रियों का निग्रह- - दमन होता है।
यह उपदेश तीर्थंकर भगवान द्वारा दिया गया है, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा॥211॥
1. पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्ये भवति, तंजहा - अप्पापडिलेहा, रूवे वेसासिए, तवे अणुन्नाए, लाघविए पसत्थे, विउले इंदियनिग्गहे । - स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 5