________________
742
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
कथित अभिग्रहनिष्ठ मुनि उन वस्त्रों का त्याग करके एक वस्त्र रखे। यदि कुछ सर्दी अवशेष है, तो वह दो वस्त्र रखे और सर्दी के समाप्त होने पर केवल लज्जा निवारण करने के लिए और लोगों की निन्दा एवं तिरस्कार से बचने के लिए वह एक वस्त्र रखे। यदि वह लज्जा आदि पर विजय पाने में समर्थ है, तो वह पूर्णतया वस्त्र का त्याग कर दे, परन्तु मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण अवश्य रखे, क्योंकि ये दोनों जीव रक्षा के साधन एवं जैन साधु के चिह्न हैं।
चूर्णिकार ने ‘सांतरोत्तर' शब्द का अर्थ एक अन्तर पट और दूसरा उत्तर पट किया है। आचार्य शीलांक ने लिखा है कि कहीं-कहीं वह उत्तरीय से अपना अंग ढांकता है और कभी-कभी उसे बगल में रख लेता है । इन दोनों में चूर्णिकार का अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। बौद्ध ग्रंथों में भी निर्ग्रन्थों के लिए एक शाटक वाले निर्ग्रन्थ शब्द का उल्लेख मिलता है।
इससे स्पष्ट होता है कि भगवान महावीर के शासन में अचेलक साधु भी थे या यों कहना चाहिए कि स्थविरकल्पी साधु सवस्त्र रहते थे और सवस्त्र अवस्था में मुक्ति को प्राप्त करते थे।
वस्त्रों के त्याग से जीवन में किस गुण की प्राप्ति होती है, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-लाघावियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ॥210॥ छाया-लाघविकमागमयन्, तपस्तस्य अभिसमन्वागतं भवति।
पदार्थ-लाघावियं-वह मुनि लाघवता को। आगममाणे-प्राप्त करता हुआ वस्त्र का त्याग करे, इससे। से-उस त्याग निष्ठ साधक के। तवे-तप। . अभिसमन्नागए भवइ-सम्मुख होता है।
1. क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपिरतुलनार्थ शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् सान्तरमुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित् प्रावृणोति क्वचित् पार्श्ववर्ति बिभर्ति ।
-आचाराङ्ग वृत्ति 2. निगंठा एक साटका।
-अंगुत्तरनिकाय, भाग 3, पृष्ठ 383