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अष्टम अध्ययन : विमोक्ष
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चतुर्थ उद्देशक
तृतीय उद्देशक में परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करने का उपदेश दिया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में अभिग्रहनिष्ठ मुनि के लिए वस्त्र-पात्र रखने की मर्यादा का उल्लेख्न किया गया है और अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों के उत्पन्न होने पर वह संयम का त्याग न करे-भले ही प्राणों का त्याग करना पड़े तो प्रसन्नता के साथ कर दे, इस बात का उपदेश दिया गया है। उद्देशक के प्रारम्भ में वस्त्राचार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पाय चउत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइज्जा, अहा परिग्गहियाइं वत्थाई धारिज्जा; नो धोइज्जा, नो धोयरत्ताइं वत्थाई धारिज्जा, अपलिओवमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गिय॥208॥
छाया-यो भिक्षुः त्रिभिर्वस्त्रैः पर्युषिते चतुर्थैः तस्य (ण) नैवं भवति चतुर्थं वस्त्रं याचिष्ये स यदैषणीयानि वस्त्राणि याचेत यथा परिगृहीतानि वस्त्राणि धारयेत् न धोवेत्, नो धौतरक्तवस्त्राणि धारयेत्, अगोपयन् ग्रामान्तरेषु अवमचेलिकः एतत् वस्त्रधारिणः सामग्रियं (भवति)। __ पदार्थ-जे-जो अभिग्रहधारी। भिक्ख-भिक्ष। तिहिं वत्थेहि-तीन वस्त्र। एवं पाय चउत्थेहिं-चौथे पात्र से। परिवुसिए-युक्त है। णं-वाक्यालंकार में। तस्स-उसको। नो एवं भवइ-शीतादि के लगने पर यह विचार नहीं होता। चउत्थं वत्थं जाइस्सामि-मैं वस्त्र की याचना करूंगा। से-वह, यदि उसके पास तीन वस्त्रों से कम हो तो। अहेसणिज्जाइं-वह एषणीय-निर्दोष । वत्थाई-वस्त्रों . की। जाइज्जा-याचना करे और। अहापरिग्गहियाई-जैसा वस्त्र मिला है। वत्थाई- .