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अष्टम अध्ययन, उद्देशक 3
737 • कुछ मनुष्यों का स्वभाव होता है कि वे प्रत्येक मनुष्य की चेष्टा को अपनी चेष्टा के अनुरूप देखते या समझते हैं। उन्हें काम-भोगों के आवेग से कम्पन पैदा होता है, तो वे दूसरे व्यक्ति को कांपते हुए देखकर उसे भी काम-विकार से पीड़ित समझने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति के सन्देह को अवश्य दूर करना चाहिए। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है।
कोई साधु किसी गृहस्थ के घर भिक्षा को गया। सर्दी की अधिकता के कारण उसके शरीर को कांपते हुए देखकर यदि कोई गृहस्थ पूछ बैठे कि क्या आपको काम-वासना का वेग संता रहा है? तो मुनि स्पष्ट शब्दों में कहे कि मैं वासना से प्रताड़ित नहीं हूं, परन्तु सर्दी की अधिकता के कारण कांप रहा हूं। यह सुनकर यदि गृहस्थ कहे कि तुम अग्नि ताप लो। यदि तुम हमारे चूल्हे के पास जाना नहीं चाहते हो, तो हम ताप का साधन यहां लाकर दे दें। उस समय मुनि कहे कि हे देवानुप्रिय! मुझे अग्नि तापना नहीं कल्पता है। चूँकि वह सजीव है, इसलिए आग तापने से तेजस्कायकि जीवों की हिंसा होती है। इस तरह वह समस्त शंकाओं का निराकरण करके विशुद्ध भावों के साथ साधना में संलग्न रहे।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥