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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
की काया-शरीर को। आयाविज्ज वा-थोड़ा-सा तपावे। पयाविज्ज वा-विशेष रूप से तपावे। मे-मुझे। नो कप्पइ-नहीं कल्पता। च-पुनः। तं-मुनि उस अग्निकाय के आरम्भ को। पडिलेहाए-अपनी बुद्धि से विचार कर। आगमित्ताभली-भांति जानकर। तं-उस गृहस्थ से इस प्रकार। आणविज्जा-कहे। अणासेवणाए-यह अग्नि मेरे सेवन करने योग्य नहीं है। अतः मुझे इस अग्नि का सेवन करना नहीं कल्पता, अर्थात् मैं इसका सेवन नहीं कर सकता हूं। त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं।
मूलार्थ-जिसका शरीर शीत के स्पर्श से काँप रहा है, ऐसे भिक्ष के समीप आकर यदि कोई गृहस्थ कहने लगे कि हे आयुष्मन् श्रमण! आप विषय विकार से पीड़ित तो नहीं हो रहे है? उसके इस संशय का निराकरण करने के लिए मुनि उसे कहे कि मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहा है, किन्तु मैं शीत के स्पर्श को सहन नहीं कर सकता! मुझे अग्निकाय को उज्ज्वलित-प्रज्वलित करना, अग्नि से शरीर को थोड़ा-सा गर्म करना या अधिक गरम करना अथवा दूसरों से करवाना नहीं कल्पता है। यदि साधु के इस प्रकार बोलने से कभी कोई गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित-प्रज्वलित करके उस साधु के शरीर को थोड़ा या अधिक गरम करे या गरम करने का प्रयत्न करे, तो भिक्षु उस गृहपति को इस प्रकार प्रतिबोधित करे कि यह अग्नि मेरे लिए अनासेव्य है, अर्थात् मुझे अग्नि का सेवन करना नहीं कल्पता। अतः मैं इसका सेवन नहीं कर सकता। इस प्रकार मैं कहता हूँ। हिन्दी-विवेचन ___जीवन में कंपन विकारों के वेग से होता है। विकार भी द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शीत एवं ज्वर आदि द्रव्य विकार हैं, जिनके कारण शरीर में कंपन होता है। काम, क्रोध, मोह आदि भाव विकार हैं और जब इनका वेग होता है, उस समय भी शरीर कांपने लगता है। इस तरह भले ही सर्दी से, ज्वर से या काम आदि से शरीर में कम्पन हो, वह विकारजन्य ही कहलाता है। परन्तु, द्रव्य विकारों से उत्पन्न कम्पन जीवन के लिए अहितकर नहीं है, परन्तु भाव विकारों के वेग से उत्पन्न कम्पन जीवन का पतन भी कर सकता है। इसलिए साधक को भाव विकारों के आवेग से सदा दूर रहना चाहिए।