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अष्टम अध्ययन : विमोक्ष
· तृतीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक में अकल्पनीय आहार आदि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में बताया गया है कि यदि भिक्षा आदि के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु शीत के कारण कांप रहा हो और गृहस्थ के मन में यह शंका उत्पन्न हो गई हो कि साधु कामेच्छा के उत्कट वेग से कांप रहा है, तो उस समय साधु की उसकी शंका का निवारण कैसे करना चाहिए, इस संबन्ध में सूत्रकार कहते हैं__ मूलम्-मज्झिमेणं वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुट्ठिया, सोच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामियां समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए ते अणवकखमाणा, अणइवाएमाणा, अपरिग्गहेमाणा, नो परिंग्गहावंती सव्वावंति च णं लोगसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं अकुबमाणे एस महं अगंथे वियाहिए ओए जुइमस्स खेयन्ने उववायं चवणं च नच्चा॥204॥ ___ छाया-मध्यमेन वयसापि एके संबुध्यमानाः समुत्थिताः श्रुत्वा मेधावी वचनं पंडितानां निशम्य समतया धर्मः आर्यैः प्रवेदितः ते अनवकांक्षमाणाः अनतिपातयन्तोऽपरिगृह्णन्तः नो परिग्रहवन्तः सर्वस्मिन्नपि च लोके (ण) निधाय दण्डं प्राणिषु (प्राणिभ्यः) पापं कर्म अकुर्वाणः एषो महान् अग्रन्थःव्याख्यातः ओजः द्युतिमतः खेदज्ञः उपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा।
पदार्थ-एगे-कई एक। मेहावी-बुद्धिमान व्यक्ति। मज्झिमेणं-मध्यम-यौवन। वयसावि-वय-अवस्था में। पंडियाणं-तीर्थंकरादि पण्डित पुरुषों के। वयणं-वचन। सुच्चा-सुनकर। निसामिया-हृदय में सोच-विचार कर कि। आरिएहि-आर्य पुरुषों-तीर्थंकरादि ने। समियाए-समता भाव से। धम्मे-श्रुत और चारित्र रूप धर्म का। पवेइए-प्रतिपादन किया है। ते-वे। संबुज्झमाणा-बोध को प्राप्त हुए हैं, और। समुट्ठिया-दीक्षित होकर धर्म का परिपालन करने को उद्यत हुए हैं।