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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 3 731 अणवकंखमाणा-काम-भोगों की इच्छा न रखते हुए। अणइवाएमाणा-प्राणियों की हिंसा न करते हुए। अपरिग्गहेमाणा- परिग्रह न रखते हुए। नोपरिग्गहावंतीअपने शरीर पर ममता नहीं रखते हुए। च-समुच्चय अर्थ में है। ण-वाक्यालंकार में है। सव्वावंति-सर्व। लोगंसि-लोक में। निहाय दंडं पाणेहि-प्राणियों के दंडपरिताप, पीड़ादि को छोड़कर। पावं कम्म-पाप कर्म । अकुव्वमाणे-नहीं करते हैं। एस-उन। महं-महान् पुरुषों को जो। ओए-राग-द्वेष से रहित हैं। जुइमस्स-संयम या मोक्ष मार्ग के। खेयन्ने-ज्ञाता-जानने वाले हैं। उववायं-देवों के उपपात। च-और। चवणं-च्यवन (मृत्यु) को। नच्चा-जानकर, जो पाप कर्म एवं कषायों का त्याग कर देते हैं और। अगंथे-जिनके पास धनादि परिग्रह नहीं है, उन्हें निर्ग्रन्थ। वियाहिए-कहते हैं। . मूलार्थ-कई एक व्यक्ति मध्यवय में भी बोध को प्राप्त होकर धर्म में उद्यत होते हैं। बुद्धिमान तीर्थंकरादि के वचनों को सुनकर और समता भाव से हृदय में । विचार कर, तीर्थंकरों के प्रतिपादन किए हुए धर्म में दीक्षित होकर वे काम-भोगों के त्यागी, प्राणियों की हिंसा से निवृत्त, धनादि परिग्रह से रहित होते हुए अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते हैं। वे महापुरुष संपूर्ण लोक में स्थित समस्त प्राणियों के दंड का परित्याग करके किसी भी प्रकार के पापकर्म का आचरण नहीं करते हैं। वे बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि-परिग्रह से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ कहे गए हैं। अतः जो साधक राग-द्वेष से रहित हैं और संयम एवं मोक्ष के ज्ञाता हैं, वे देवों के उपपात एवं च्यवन को जानकर कभी भी पापकर्म का आचरण नहीं करते हैं। हिन्दी-विवेचन यह हम देख चुके हैं कि मनुष्य तीनों अवस्थाओं-बाल्य, यौवन एवं वृद्ध अवस्था में साधना को साध सकता है। फिर भी यहां मध्यम अवस्था को लिया गया है। इस समय में प्रायः बुद्धि परिपक्व होती है। इसलिए वह अपने हिताहित का भली-भांति विचार कर सकता है। अतः कोई व्यक्ति तीर्थंकर के या आचार्य आदि के वचनों से बोध को प्राप्त होकर श्रुत और चारित्र धर्म को स्वीकार करता है। वह समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के तुल्य समझकर समस्त आरम्भ-समारम्भ का त्याग कर देता है। वह समस्त पदार्थों पर से यहां तक कि अपने शरीर पर से भी ममत्व हटा
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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