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________________ अष्टम अध्ययन, उद्देशक 2 छाया - धर्मं जानीत प्रवेदितं माहणेण मतिमता समनोज्ञः समनोज्ञाय अशनं वा यावत् कुर्याद्वैयावृत्यं परमाद्रियमाणः, इति ब्रवीमि । 729 पदार्थ - धम्ममायाणह - हे आर्य ! तू धर्म को जान, जिसे । मइमया - मतिमानसर्वज्ञ। माहणेण-भगवान ने । पवेइयं - प्रतिपादन किया है, कि । समणुन्ने - समनोज्ञ साधु । समणुन्नस्स - समनोज्ञ साधु को । असणं वा - आहार आदि पदार्थ । जाव - यावत् । पर आढायमाणे - अत्यन्त आदर पूर्वक दे, और। वेयावडियं कुज्जा-उनकी वैयावृत्य करे । त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूं । मूलार्थ - हे आर्य ! तू सर्वज्ञ भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म को समझ । उन्होंने कहा है कि समनोज्ञ साधु समनोज्ञ साधु को आदरपूर्वक आहार आदि पदार्थ दे और उनकी सेवा-शुश्रूषा भी करे। ऐसा मैं कहता हूं। हिन्दी - विवेचन पूर्व सूत्र में अमनोज्ञ - शिथिलाचारी या अपने से असम्बद्ध साधु को ह आदि देने का निषेघ किया गया है। इस सूत्र में अपने समान आचार वाले समनोज्ञ साधु को आदर पूर्वक आहार आदि देने एवं उसकी वैयावृत्य करने का विधान किया गया है। अपने समानधर्मी मुनि का स्वागत करना मुनि का धर्म है। इससे पारस्परिक धर्म-स्नेह बढ़ता है और एक-दूसरे के संपर्क से ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में अभिवृद्धि ' होती है, संयम में भी तेजस्विता आती है। अतः साधक को समनोज्ञ मुनि का आहर पानी से आदर-सम्मान पूर्वक उचित सत्कार करना चाहिए। उसकी सेवा-वैयावृत्य करनी चाहिए। क्योंकि, सेवा-शुश्रूषा से कर्मों की निर्जरा होती है और उत्कट भाव आने पर तीर्थंकर गोत्र का भी बन्ध हो सकता है । अतः साधक को सदा संयम-निष्ठ पुरुषों का स्वागत करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें । ॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ क
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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